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मानसिक संतुलन
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दिया । कुछ दिनों बाद मिला । पूछा- क्या स्थिति है ? भय तेरा समाप्त हो गया? उसने कहा---- डर तो मेरा कम हो गया पर एक डर मन में और घुस गया। वह क्या ? निरन्तर डर बना रहता है कि कहीं ताबीज खो न जाये । हमारी दुनिया ऐसी है । हमारी सामाजिक परिस्थिति ऐसी है कि एक के बाद एक नया भय पैदा होता रहता है। एक भय मिटता है तो दूसरा भय पैदा हो जाता है । आदमी के मन में भय है कि बुढ़ापे में क्या होगा । यदि पूरा धन संग्रह नहीं हुआ तो बुढ़ापे में क्या होगा ? बीमारी में क्या होगा ? सामने वह स्थिति आ रही है, क्या होगा? यह क्या होगा, यह बात कभी मन से निकलती ही नहीं । और यह बात व्यावहारिक भी है । सोचना अनावश्यक भी नहीं मानता। हर आदमी को सोचना पड़ता है । पर आप थोड़ा अन्तर करें कि चिन्तन करना और चिन्ता करना – ये दो अलग बातें हैं । चिन्तन और चिन्ता एक नहीं है। चिन्तन जीवन की एक आवश्यकता है । और चिन्ता जीवन की बीमारी है । चिता, चिन्ता और चिन्तन । तीनों बराबर योग है । चिन्तन भी जब सीमा से अतिक्रान्त हो जाता है तो चिन्ता बन जाता है । चिन्ता जब बहुत बढ़ जाती है तो चिता बन जाती है ।
मृत्यु का सबसे बड़ा कारण अकालमृत्यु का सबसे बड़ा कारण है चिंता । आज के युग में हृदय - अवरोध की बीमारी और सद्यस्कघाती बीमारियां बहुत बढ़ी हैं। इसका एक बड़ा कारण है चिन्ता । आदमी इतना जोर रहता है, इतना बोदरेशन है कि हर समय चिन्ता से ग्रस्त रहता है । और उस पिता ने हृदय पर इतना दबाव डाला है, कि आज छोटे-छोटे व्यक्ति भी असमय में चले जाते हैं । चिन्ता है तो चिता की तैयारी हो जाती है । हमें क्या करना होगा ? हम चिता का इलाज नहीं कर सकते । अनिवार्य घटना है । चिन्ता का भी इलाज नहीं कर सकते । कोई आदमी यह सोचे कि चिन्ता न करू, चिन्ता को मिटा दूं, यह भी असम्भव है । हम उसका इलाज नहीं कर सकते । हम इलाज पहली स्टेज में कर सकते हैं। जब तीसरी स्टेज में बीमारी चली जाती कठिनाई होती है। कैंसर का प्रारम्भ सम्भावना होती है और अन्तिम स्टेज जैसा बन जाता है। चिन्तन का उपाय करें जितना कि हमारे जीवन के लिए कि चिन्तन का चक्का जब चालू हो जाता है तो फिर कभी बन्द नहीं होता । जागते भी बन्द नहीं होता, सोहे
है तो इलाज नहीं हो सकता | बड़ी होता है तब तक तो उसके इलाज की पर चला जाता है तो फिर असाध्य कर सकते हैं । चिन्तन हम उतना ही जरूरी है । पर कुछ लोग तो ऐसे हैं
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