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________________ तनाव क्यों ? निवारण कैसे ? ६०३ "उसने ताबीज बना दिया और बोला -- इसको बांध लो । तुम्हारा डर समाप्त हो जाएगा । ताबीज बांध लिया। डर लगना कम हो गया। आया कुछ दिन - बाद, पूछा- भई ! अब डर तो नहीं लगता ? उसने कहा—जो काल्पनिक था, वह तो नहीं लगता, किन्तु एक डर और पैदा हो गया । यह निरन्तर मन में भय बना रहता है कि कहीं ताबीज गुम न हो जाए। एक भय तो समाप्त हुआ, दूसरा भय और आ गया । जब यह दृष्टि मूल में बनी रहती है कि प्रिय का वियोग न हो जाए, - अप्रिय का योग न हो जाए, तब भय अनिवार्य है । उस मूल कारण से तनाव पैदा होता है । जब प्रिय संवेदन की भावना है, उसका तनाव भी पैदा होता है । जितने इन्द्रियों के सुख, काम-लोलुपता है, सारे के सारे संयोग हैं, वे न मिलें - तब तक मन में चाह बनी की बनी रहती है, तनाव रहता है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आज यह माना गया है कि काम का तनाव सबसे ज्यादा रहता है । जितने तनाव हैं वे अधिक नहीं टिकते। जैसे क्रोध का तनाव, क्रोध आया • और दस मिनट के बाद क्रोध शान्त हो गया । तनाव भी शान्त हो गया । किन्तु काम का तनाव तो चौबीस घंटे वर्तमान रहता है। हर मनुष्य में काम का तनाव विद्यमान है और सबसे भयंकर यह तनाव होता है । प्रियता का संवेदन है, इसलिए अहंकार होता है । यह एक बड़ा रस है, कम रस नहीं है । जब अपने वैभव पर, शक्ति पर अपनी सत्ता और अधिकार पर अहंकार की चेतना जागती है तो आदमी को इतना रस मिलता है कि शायद किसी वस्तु में नहीं मिलता, इतना प्रिय संवेदन होता है । ये सारे तनाव, - सारे कषाय, सारे आवेग जन्म ले रहे हैं प्रियता और अप्रियता के संवेदन के द्वारा । भगवान् महावीर का एक छोटा-सा वाक्य है । उनसे पूछा गया कि इन सारी समस्याओं का बीज क्या ? सारे दुःखों का मूल कारण क्या है ? उन्होंने बहुत संक्षिप्त-सा उत्तर दिया कि 'रागो य दोसो।' राग और द्वेष, यह कर्म का बीज है । राग है प्रियता का संवेदन, द्वेष है अप्रियता का संवेदन । ये कर्म के बीज हैं और सारे कर्म यहां से जन्म ले रहे हैं । ये संवेदन प्रभावित करते हैं हमारी ग्रन्थियों को । आज का शरीरशास्त्री इस बात को जानता है कि शरीर का कंट्रोल ग्रन्थियों का स्राव कर रहा है, किन्तु स्राव किस प्रकार होता है और क्यों होता है, इसका कारण अभी तक शरीरशास्त्री भी पूरा नहीं जान पाए हैं । इसीलिए मैं इस भाषा में सोचता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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