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एकला चलो रे
को दर्शन मानते चले जा रहे हैं। और सबसे बड़ा तनाव का यही कारण बन गया । यथार्थ में जब दर्शन होता है, तब तनाव नहीं होता। जो जानता है, देखता है, वह तनाव से नहीं भरता । जो नहीं जानता, नहीं देखता, वह तनाव से भरता है। विचार के स्तर पर भी कम तनाव नहीं होता। आज वैचारिक स्तर पर कितने तनाव हैं ? पारिवारिक जीवन में भी आप अनुभव -करें, विचार के स्तर पर कितने तनाव हैं ? एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति सन्देह करता है, तनाव से भर जाता है । दूसरे व्यक्ति के प्रति संशय, अनास्था करता है, तनाव से भर जाता है। कारण साफ है, मन में सन्देह जन्मा और तनाव पैदा हो गया। जहां परोक्ष हैं, वहां सन्देह होना अनिवार्य है। परोक्ष का मतलब ही है-सन्देह को जन्म देना । प्रत्यक्ष में कोई सन्देह नहीं होता । जानना और देखना-ज्ञाता और द्रष्टा होना, यह तनावमुक्ति का सबसे अच्छा उपाय है।
प्रेक्षा का अर्थ होता है-जानना और देखना । जो जानता है, जो देखता है, वह तनाव से नहीं भरता । तनाव का सबसे बड़ा कारण है अप्रिय-संवेदन । दो प्रकार के संवेदन हैं-एक है प्रियता का संवेदन और दूसरा है अप्रियता का संवेदन । उन दोनों में मूल बात है प्रिय संवेदन । हमारे सारे जीवन के संचालन के केन्द्र में जो तत्त्व है, वह है लोभ । मनोविज्ञान के अनुसार हर व्यक्ति में कुछ मौलिक मनोवृत्तियां होती हैं । जीने की इच्छा एक मौलिक मनोवृत्ति है । काम एक मौलिक मनोवृत्ति है । झगड़ा करना, संघर्ष करना एक मौलिक मनोवृत्ति है । सबमें मूल बात है जिजीविषा-जीने की इच्छा। अब जब जीने का मोह होता है तो सारी वृत्तियां भी जन्म लेती हैं। प्रियता का संवेदन तनाव का संवेदन है । जब प्रियता का संवेदन होता है तो अप्रियता का संवेदन होगा । प्रियता होगी तो अप्रियता होनी जरूरी बात है । हमारे सारे तनाव इस परिधि में हो रहे हैं कि प्रियता का संवेदन हो, प्रिय मिले, प्रिय का वियोग न हो और अप्रियता का योग न हो । बस, सारी तनाव की यह सीमा है। इसी सीमा में सारे तनाव जन्म ले रहे हैं, तनाव प्रकट हो रहे हैं । पर मूल में जो छिपा हुआ कारण कार्य कर रहा है, वह मात्र एक ही है-प्रियता का संवेदन, अप्रियता का संवेदन । अब यह संवेदन है तो भय भी पैदा होगा।
एक आदमी बहुत डरता था । वह समझदार आदमी के पास गया जो मंत्र को जानता था। उसके पास जाकर बोला-मुझे डर बहुत लगता है ।
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