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ध्यान : कठिन या सरल
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देखते हैं और न भावना को ।
जिस व्यक्ति ने ध्यान किया है, जिसने चित्त को निर्मल बनाने की साधना की है, उसकी तीनों आंखें खुल जाती हैं। कितना बड़ा लाभ होता है। तीनों आंखें बराबर काम करने लग जाती हैं। वह प्रत्येक कार्य को करते समय शरीर को देखता है, मन को देखता है और भावना को देखता है, तीनों को देखता है। फिर यह निर्णय करता है कि यह कार्य लाभप्रद है या नहीं ? यह कार्य करूं या नहीं ? कर्त्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय पुस्तकों के आधार पर नहीं हो सकता । वह निर्णय हो सकता है अपनी निर्मल चेतना के आधार पर । निर्मल चेतना का जागरण होता है, ध्यान के द्वारा । जब आदमी ज्ञाता है और द्रष्टा बनता है, तब उसकी निर्मल चेतना जागती है । जब निर्मल चेतना का जागरण होता है, तब भोक्ता बनना कठिन होता है, ज्ञाता-द्रष्टा बनना सरल होता है। जब तक निर्मल चेतना नहीं जागती, जब तक भोक्ता बनना सरल होता है, ज्ञाता-द्रष्टा बनना कठिन होता है। ध्यान का उपयोग है ज्ञाता-द्रष्टा बनना । इसका तात्पर्य है, हर घटना को जानना-देखना किन्तु उसको भोगना नहीं । यह स्थिति ध्यान-साधक के लिए सहज बन जाती है। जब ध्यान की चेतना नहीं जागती, एकाग्रता और निर्मलता का अभ्यास नहीं होता, उस स्थिति में भोगना सरल होता है। कोई भी घटना घटती है और वह उसे भोगने लग जाता है। उसके प्रभाव से प्रभावित हो जाता है ।।
इस सारे सन्दर्भ में जब हम धर्म या ध्यान पर विचार करते हैं तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि आज के युग को इनकी अपरिहार्य आवश्यकता है। इसका कारण बहुत स्पष्ट है । आज का आदमी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक बीमारियों से ग्रस्त है क्योंकि वह शारीरिक (फिजिकल), मानसिक (मेंटल) और भावनात्मक (इमोशनल)-इन तीनों प्रकार के तनावों से पीड़ित है । आज ये तीनों जितनी प्रचुर मात्रा में हैं, उतनी मात्रा में पहले नहीं थे । ध्यान के द्वारा ही इनसे छुटकारा पाया जा सकता है। इस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर ही हम कह सकेंगे कि ध्यान कितना कठिन है और कितना सरल
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