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एकला चलो रे
अन्यत्र कहीं। साथी ने कहा-धन्यवाद ! कल मैंने कहा, उसे तुमने मान लिया। आज छिलके सड़क पर नहीं फेंके । उसने कहा-सड़क पर तो नहीं फेंके पर मेरे पास में जो दूसरा यात्री बैठा था, उसकी जेब में चुपके से छिलके डाल दिये । सड़क पर उन्हें डालने की नौबत ही नहीं आयी ।
संभव है, हर आदमी ऐसा ही करता है। वह समस्या को दूसरों के जेब में डालता जाता है और यह मान लेता है कि समस्या का समाधान हो गया । समस्या सुलझती नहीं। एक समस्या सुलझती है तो दूसरी उलझ जाती है।
समस्या समाधान का सही मार्ग है-मन पर ध्यान देना, भावनाओं पर ध्यान देना । शरीर के लिये जो भी काम किया जाता है, उसको करने से पूर्व यह सोचना होगा कि मैं यह काम शरीर की सुविधा के लिये कर रहा हूं, पर इससे कहीं मन की समस्या उलझ तो नहीं रही है ? कहीं भावना की समस्या गहरी तो नहीं होती जा रही है ? हम तीनों समस्याओं पर एक साथ ध्यान दें। जब तक शरीर की समस्या, मन की समस्या और भावना की समस्या पर .समवेत रूप में ध्यान नहीं देंगे, तब तक समाधान नहीं मिलेगा।
भावना की समस्या होती है। भावना में राग-द्वेष होता है। राग की भी समस्या होती है और द्वेष की भी समस्या है। वह सोचे, मैं ऐसा काम तो नहीं कर रहा हूं, जिससे की राग-द्वेष बढ़े, भावनाएं मलिन हों। ये आगे बहुत सताएंगी। ___ शरीर को कौन सताता है ? शरीर तो बेचारा जड़ है, उसे सताता कौन है ? ये भावनाएं शरीर को सताती हैं । भावनाएं बहुत सूक्ष्म होती हैं। जब ये अपने परमाणुओं का विकिरण करती हैं, तब ये मन को सताती हैं। मन जब सताया जाता है, तब वह सोचता है-मैं अकेला ही क्यों भोगू? शरीर भी तो मेरा साथी है । मन परमाणुओं का विकिरण करता है और तब बेचारा शरीर भी सताया जाता है । सबसे अधिक दंड शरीर को भोगना पड़ता है । हम शरीर के लिए जो कुछ करें, उसके साथ-साथ यह भी सोच लें कि इस क्रिया का प्रभाव मन पर क्या होगा, भावना पर क्या होगा ? किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मन को देखने वाली आंख भी आदमी की बंद है और भावना को देखने वाली आंख भी बंद है । उसके सामने शरीर को देखने की एक ही आंख खुली है। दो आंख होते हुए भी आदमी 'काना' (एक आंख वाला) बन रहा है। एक नहीं, सभी आदमी काने हैं, काने व्यक्ति का-सा व्यवहार कर रहे हैं । वे केवल शरीर को ही देखते हैं, इसलिए काने हैं । वे न मन को
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