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ध्यान : जीवन की पद्धति
ध्यान एक अजूबा बना हुआ है। ध्यान करने वाले को विशेष माना जाता है । ऐसा लगता है कि ध्यान हमारे जीवन का अभिन्न अंग नहीं है, वह कोई विशेष साधना है । सचाई यह है कि यह जीवन का स्वाभाविक क्रम है । ध्यान कोई बाहर से आया हुआ तत्त्व नहीं है, यह जीवन की पूरी पद्धति है । ध्यान न करने वाले की जीवन-पद्धति में और ध्यान करने वाले की जीवन-पद्धति में अन्तर होगा। दोनों की जीवन-पद्धतियां समान नहीं हो सकतीं।
हम ध्यान को एक जीवन-पद्धति के रूप में स्वीकार करें। ध्यान से हमारे जीवन का समूचा क्रम बदल जाता है । यदि ध्यान करने से जीवन की चर्या न बदले, मान्यताएं और धारणाएं न बदलें, स्वभाव और आदतें न बदलें तो फिर ध्यान करने का कोई विशेष अर्थ समझ में नहीं आता।
हर आदमी बदलता है। दुनिया में एक भी ऐसा आदमी नहीं जो न बदले। जो लोग बहुत रूढ़िवादी हैं, न बदलने की धारणा रखते हैं और यह घोषणा करते हैं कि सारी दुनिया बदल जाए, हम कभी नहीं बदलेंगे, वे भी बदलते हैं । उन्हें भी बदलना पड़ता है।
बदलना दो अवस्थाओं में होता है । एक है परिस्थिति से बदलना और दूसरा है विवेक से बदलना । परिस्थिति से बदलना बाध्यता से बदलना है। विवेक से बदलना सहज भाव से बदलना है। बदलना दोनों है, पर दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है।
एक नदी के किनारे आतिशबाजी का कार्यक्रम था। हजारों लोग एकत्रित हुए । भयंकर आतिशबाजी हुई । नदी की सारी मछलियां भयभीत हो गईं । उन्होंने सोचा-क्या प्रलय हो रहा है ? यह विस्फोट कैसा ? सब घबराई हुई मछलियां बड़ी मछली के पास गईं । उसने कहा-यह सब हमारे पापों का परिणाम है । जो प्रलय हो रहा है, आकाश और जमीन फट रही है, नदी में बाढ़ जैसी आ रही है, यह सब हमारे ही पापों का परिणाम है । हम भयंकर पाप करते हैं । बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को खा जाती हैं,
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