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-सहिष्णुता के प्रयोग हो जाये । लाभ वह नहीं होता, जो होना चाहिए। यदि उपवास विधिवत् किया जाये तो बीमारियां सहज ही ठीक हो सकती हैं। यह मांड वाली बात भी पुराने जमाने में चलती थी। उपवास में भी चावल का मांड पीने की परम्परा थी। आजकल तो नहीं है, पुराने जमाने में थी। यह मांड स्त्रियों के लिए बहुत लाभदायी होता है। स्त्रियों के लिए कोष्ठबद्धता (कब्ज) का एक कारण होता है ऋतुस्राव की अनियमितता। उससे बहुत भयंकर कब्ज होती है । और उसके लिए मांड का प्रयोग जितना लाभदायी होता है, शायद सैंकड़ों दवाइयां भी उतनी लाभदायी नहीं होतीं। उपवास से बहुत सारी समस्याएं हल होती हैं, यदि वह प्रयोग की दृष्टि से किया जाये । इस वैज्ञानिक युग में इतने बौद्धिक विकास और अनुसंधानों के उपरान्त भी यदि कोई परम्परा केवल परम्परा के रूप में चलती है तो लगता है कि हम जान-बूझकर यथार्थ के साथ आंख-मिचौनी कर रहे हैं । आज हर बात के पीछे गहरी अनुसन्धान की दृष्टि होनी चाहिए। यह करें तो क्यों करें ? क्या परिणाम होगा? कैसे किया जाये ? इस पद्धति में केसे विकास किया जा सकता है ? यह हमारा सारा चिन्तन स्पष्ट होना चाहिए।
मैंने प्रयोग की दृष्टि से दो-चार बातें प्रस्तुत की-अस्वाद का प्रयोग, आयंबिल का प्रयोग, उपवास का प्रयोग । साथ-साथ में आतापना का प्रयोग भी है । आतापना का प्रयोग केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। आतापना का अर्थ केवल मध्याह्न की चिलचिलाती धूप में लेटना, शिलापट्ट पर लेटना ही नहीं है। सूर्य के आतप को लेना सहिष्णुता का प्रयोग है, संकल्प-शक्ति का प्रयोग है और साधना का बहत महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। सूर्य-रश्मि-चिकित्सा, रंगचिकित्सा इसके साथ जुड़ी हुई है। शरीर के लिए विटामिन 'डी' बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । विटामिन 'डी' का सबसे बड़ा स्रोत है सूर्य का आतप । उससे जितना अच्छा विटामिन 'डी' मिलता है, उतना दूसरी जगह नहीं मिलता । स्वास्थ्य के लिए धूप का सेवन बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। यह आतापना का प्रयोग है। आतापना के साथ आसनों का प्रयोग भी जुड़ा हुआ है। एक प्रकार के आसन में आतापना लेने से सूर्य की रश्मियों का एक प्रकार का प्रभाव होता है और दूसरे प्रकार के आसन में आतप लेने से सूर्य की रश्मियों का दूसरे प्रकार का प्रभाव होता है। आज के वैज्ञानिकों ने
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