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________________ २५८ एकला चलो रे नहीं कि गेहं का स्वाद कैसा होता है । बिना साग के गेहं की रोटी खाकर देखें; पता चलेगा कि गेहूं कितनी मीठी होती है। कितना मिठास है गेहूं में, इतनी मीठी होती है कि फिर चीनी डालने की कहीं बात नहीं आती। बहुत मीठी होती है । किन्तु जब साथ में खाते हैं तो पता ही नहीं चलता । बाजरी में बहुत मिठास है, बहुत चीनी है। गेहूं में बहुत चीनी है। पर नमक के साथ खाते हैं, साग के साथ खाते हैं तो बेचारे गेहूं का स्वाद कहीं दब जाता है, छिप जाता है, पता नहीं चलता। बस, केवल नमक का और मसालों का -स्वाद ही जीभ पर होता है । स्वाद का भी बहुत बड़ा अन्तर होता है। ___ उपवास सहिष्णुता का बड़ा प्रयोग है । प्रतिदिन प्रातःकाल भोजन की मांग हो जाती है । जो उपवास करते हैं, उनमें सहज ही सहिष्णुता का विकास होता है और संकल्प-शक्ति का विकास होता है। भगवान् महावीर ने बहुत बड़ी लम्बी तपस्याएं की थीं और वे कोरी शरीर को सताने वाली तपस्याएं नहीं थीं। तो यह भ्रांति से लोगों ने मान लिया कि शरीर को बड़ा कष्ट 'दिया, सताया। उनके तो वे सारे प्रयोग थे। अब जब प्रयोग की बात भूल गए, तब लगा कि उन्होंने शरीर को बहुत सताया । आज भी लोग बहुत कहते हैं कि जैन लोग शरीर को बहुत सताते हैं । सताने की कोई बात नहीं। ये सारी प्रयोग की बातें हैं और शरीर को सताते के लिए तपस्या की जाए तो वैसी तपस्या गलत है और ऐसी तपस्या होनी ही नहीं चाहिए । केवल प्रयोग होना चाहिए । आयुर्वेद का विश्वास है कि सप्ताह में एक उपवास अवश्य होना चाहिए। आज हम उपवास के महत्त्व को भूल गये और पश्चिम के लोगों ने उपवास-चिकित्सा का प्रयोग कर रखा है, न जाने कितने वर्षों से चल रहा है। उपवास-चिकित्सा पर पश्चिम की जितनी अच्छी "पुस्तकें निकली हैं, शायद भारत में नहीं निकलीं। उपवास प्रयोग है, अगर प्रयोग की दृष्टि से किया जाये । पर होता क्या है कि कल उपवास करना है, आज धारणा गरिष्ठ भोजन का होना चाहिए। ऐसा उपवास न करें तो अच्छा, उपवास का लाभ स्वास्थ्य की दृष्टि से तो बिलकुल चला गया। मात्र अनशन हो जाएगा, लंघन हो जाएगा। उपवास प्रयोग बनता है जब पहले दिन हलका खाया जाये और पारणा में फिर हलका खाया जाये। तीन दिन बराबर यह चले । पहले दिन हलका भोजन, दूसरे दिन उपवास और तीसरे दिन ‘फिर हलका भोजन, तब उपवास वास्तव में प्रयोग बनता है। पर मान लिया गया कि धारणा भी भारी हो और पारणा भी भारी हो, बीच में पूरा हल्का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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