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आध्यात्मिक स्वास्थ्य
२४५ लक्ष्य को चुना कि गृहस्थी में रहना है तो वे गृहस्थी में जाते हैं और सैकड़ों समस्याओं को झेलते हैं। बहुत समस्याएं होती हैं । गृहस्थाश्रम इतना कठोर होता है कि. भुगतने वाला जानता है। बहुत लोग कहते हैं—'महाराज ! आप बहुत सुखी हैं। आपको कोई चिन्ता नहीं। हमारे दुःखों को देखें, तब पता चलेगा कि गृहस्थी में कितना दुःख है ।' तब सोचता हूं ये हमें सुखी मानते हैं और गृहस्थावास को दुःखी मानते हैं। शायद दूसरे खेमे के लोग कभी-कभी सोचते होंगे कि कितना सुखप्रद है घर में रहना । जो मन में आया, बना लिया, खा लिया। जो जैसा अच्छा लगा वह कर लिया। कोई चिन्ता नहीं, किसी का अनुशासन नहीं। कब उठना, इच्छा की बात । इच्छा हो तो आठ बजे उठो, इच्छा हो तो बारह बजे उठो। कोई कहने वाला नहीं, कोई रोकने वाला नहीं। यहां कितना अनुशासन, चार बजे उठना । ध्यान करो, स्वाध्याय करो। यह करो, वह करो। सारा जीवन, लगता है कि नियन्त्रित और अनुशासित है। कितना अच्छा होता कि घर में रहते ! बहुत स्वाभाविक है ऐसे विचार आना। इधर वे सोचते हैं कि ये सूखी हैं, इधर ये सोचते होंगे कि वे सुखी हैं। सचमुच यह संभावना हो सकती है । किन्तु लक्ष्य के साथ जब व्यक्ति जुड़ जाता है तब यह विकल्प समाप्त हो जाता है । जिन लोगों ने लक्ष्य निश्चित किया कि मुझे सूक्ष्म सत्य का अनुभव करना है, अपने अस्तित्व का अनुभव करना है, अपने चैतन्य के स्तर पर जीवन जीना है. उनकी समस्याएं सुलझ गईं। फिर कोई भी समस्या उनके लिए समस्या नहीं रहती।
एक संन्यासी को किसी संदेहवश दंड मिला । राजा ने दंड दिया कि कोड़े लगाए जाएं । पतला-दुबला था बूढ़ा संन्यासी । अब कोड़े लगने लगे। इधर कोड़े लग रहे हैं तेज, और उधर वह मुसकरा रहा है, हंस रहा है। कोड़ों की सजा समाप्त हो गई। एक आदमी देख रहा था, पूछा---'महाराज ! आपके इस क्षीण जर्जर शरीर पर कोड़े बरस रहे थे और आप मुसकरा रहे थे। यह क्या है ? आपके शरीर में कहां ताकत है, कहां शक्ति है कि उनको सह सके ? फिर भी आप हंस रहे थे।' संन्यासी बोला--विपदा को शरीरबल से नहीं सहा जा सकता। उसे सहा जाता है—आत्मबल से । शरीर कोई नहीं सह सकता। भारी-भरकम पुष्टकाय शरीर का आदमी भी थोड़ा-सा कष्ट होता है तो सबसे पहले जुआ डाल देता है, झुक जाता है। कोई भी आदमी शरीर के बल पर कष्ट को नहीं सह सकता, विपत्ति को नहीं सह
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