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________________ २४२ एकला चलो रे नहीं अटकते । वे सूक्ष्म में जाते हैं, तब पता चलता है कि शरीर के स्वास्थ्य का मूल्य केवल दस प्रतिशत है । मानसिक स्वास्थ्य का मूल्य तीस प्रतिशत है, तिगुना है, बहुत मूल्य है । जब और आगे जाते हैं तब पता चलता है, मानसिक स्वाथ्य का मूल्य भी कम है । भाव स्वास्थ्य या आध्यात्मिक स्वास्थ्य का मूल्य साठ प्रतिशत है । सर्वाधिक मूल्य है भाव स्वास्थ्य का, आध्यात्मिक स्वास्थ्य का । जिस व्यक्ति ने आध्यात्मिक स्वास्थ्य उपलब्ध कर लिया, उसे मानसिक स्वास्थ्य के लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं होती । वह स्वतः 'उपलब्ध होता है । जिस व्यक्ति ने भाव स्वास्थ्य प्राप्त कर लिया, उसे शारीरिक स्वास्थ्य की भी बहुत चिन्ता करने की जरूरत नहीं, वह अपने आप हो जाएगा । हमारी अधिकतर चिन्ता शारीरिक स्वास्थ्य के लिए होती है । हम मानसिक स्वास्थ्य को गौण करते हैं । भाव स्वास्थ्य को और अधिक गौणता देते हैं । इसीलिए शारीरिक स्वास्थ्य की चिन्ता भी मिट नहीं पाती । हम उलटे क्रम से चलें । सबसे पहले चिन्ता करें आध्यात्मिक स्वास्थ्य की, फिर हमारी चिन्ता हो मानसिक स्वास्थ्य की, फिर हमारी चिन्ता हो शारीरिक • स्वास्थ्य की । इस क्रम से चिन्ता स्वयं अचिन्ता बन जाएगी, समस्या सामने नहीं रहेगी । साधना का पहला सूत्र है- आध्यात्मिक स्वास्थ्य | आध्यात्मिक स्वास्थ्य में और साधना में कोई भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती। जो साधना है, वह - आध्यात्मिक स्वास्थ्य है और जो आध्यात्मिक स्वास्थ्य है, वह हमारी साधना है । दोनों एक हैं, शब्द भिन्न, तात्पर्य सर्वथा अभिन्न । ध्यान करने वाले आध्यात्मिक स्वास्थ्य की दिशा में प्रस्तुत होते हैं । यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य है । कोई भी कार्य बाधाओं से मुक्त नहीं होता । सब कामों में बाधाएं आती हैं, विघ्न आते हैं । प्रत्येक प्रवृत्ति के साधक-बाधक तत्त्वों को जानना जरूरी होता है— प्रवृत्ति के ये बाधक तत्त्व हैं और ये साधक तत्त्व हैं । कोई भी प्रवृत्ति करने वाला यदि बाधक और साधक तत्त्वों का विश्लेषण नहीं कर लेता, उसकी प्रवृत्ति कभी सम्पन्न नहीं होती, निष्ठा तक नहीं पहुंच पाती, पहले ही समाप्त हो जाती है । सफलता के बिन्दु तक वही प्रवृत्ति पहुंच पाती है जिसके साथ साधक और बाधक तत्त्वों का पूरा विवरण होता है, विश्लेषण होता है । आध्यात्मिक स्वास्थ्य के साधक तत्त्व भी हैं और बाधक तत्त्व भी हैं । जैसे ही व्यक्ति अध्यात्म की साधना शुरू करता है, विघ्न आने शुरू होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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