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________________ एकला चलो रे हम अपने आवेगों पर नियन्त्रण करना सीखें तो मानसिक संतुलन अपने आप सध जाता है। क्रोध आना और क्रोध को क्रियान्वित करना—ये दो बातें हैं। क्रोध आया, अपने तक सीमित रहा । बुराई तो है, हानि भी है, परिणाम भी अपने लिए अच्छे नहीं होते, स्वास्थ्य के लिए अच्छा परिणाम नहीं होता, किन्तु सामाजिक संपर्कों में कोई अन्तर नहीं आता । व्यक्ति को स्वयं भुगतान पड़ता है, सामाजिक सम्पर्क उनसे नहीं बिगड़ते । किन्तु क्रोध जब क्रियान्वित हो जाता है, तब सामाजिक सम्पर्कों में भी अन्तर आ जाता है । पुराने जमाने की एक घटना है कि एक राजपूत के भाई को किसी ने मार डाला। उसके मन में प्रतिक्रिया हुई। यह स्वाभाविक है। हर आदमी में प्रतिक्रिया होती है । उसने सोचा-मैं अपने भाई का बदला लूं । बहुत प्रयत्न किया। जो हत्यारा था, उसका बदला लेने का काफी प्रयत्न किया। काफी परिश्रम के बाद वर्षों बाद उसे वह पकड़ सका । पकड़कर घर पर लाया और मारने की तैयारी कर रहा था । अपराधी ने सोचा-बचने का कोई उपाय नहीं है । मरना ही होगा। तत्काल एक बात उसे सूझी। तिनका पड़ा था, तिनका उठाया और मुंह में डाल लिया । उसने कहा-मैं तेरी गाय हूं। बड़ा विकराल गुस्सा । मां सामने बैठी थी। मां ने कहा-बेटा ! अब क्रोध को सफल नहीं किया जा सकता। जब यह तेरी गाय बन गया, अब क्रोध को सफल नहीं किया जा सकता । सब जगह क्रोध को सफल नहीं करना चाहिए। कहीं-कहीं क्रोध को विफल भी करना होता है। तलवार रख दी और बिलकुल शान्त हो गया । क्रोध आना एक बात है, और उसकी क्रियान्विति दूसरी बात है। प्रत्येक आवेग के लिए दो बातें होती हैं-आवेग का उत्पन्न होना और आवेग का क्रियान्वयन करना । आना भी अच्छा नहीं। अपने लिए प्रत्येक आवेग हानिकारक होता है । किन्तु उसका क्रियान्वयन तो सारे सामाजिक सम्पर्कों को ही बिगाड़ देता है । सारे सम्बन्धों को बिगाड़ देता है। इसलिए हर आदमी के लिए, चाहे वह छोटा आदमी हो, चाहे बड़ा आदमी हो, चाहे शासन करने वाला हो, चाहे शासित हो, कोई भी व्यक्ति हो, प्रत्येक के लिए आवेग पर नियन्त्रण पाना बहुत आवश्यक है । प्राचीन काल में राजा के लिए नियम बनाये गये । महामंत्री कौटिल्य ने, भृगुजी ने, और भी हिन्दुस्तान में राजनीति के विद्वान् हुए हैं, उन्होंने राजा के लिए पूरी आचार-संहिता बनाई। उन्होंने कहा कि राजा को 'स्ववशी' होना चाहिए। उसे अपने पर नियन्त्रण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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