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मानसिक संतुलन
एक ही प्रकार की जीवन-पद्धति रहे, यह अच्छा नहीं होता। हमारी दुनिया में शाश्वत और अशाश्वत दोनों बातें होती हैं। कुछ बातें शाश्वत होती हैं, कुछ बातें परिवर्तनशील होती हैं । परिवर्तनशील यदि न बदले तो वह अच्छा नहीं होता । एक समय ऐसा था जब मनुष्य का आदि समाज था, आदि युग था और आज बहुत विकसित युग हो गया है । आदमी प्रस्तरयुग से अणुयुग तक पहुंच गया है । अगर प्रस्तरयुग की भावनाएं, वृत्तियां और प्रवृत्तियां इस युग में रहें तो यह उचित नहीं होता।
एक समय था कि मनुष्य बहुत जल्दी तनाव में आ जाता, बहुत जल्दी आवेश में आ जाता और बहुत जल्दी आक्रामक बन जाता । तत्काल तलवारें निकल जाती और शस्त्र चल जाते । किन्तु आज के अणुयुग में जैसे तलवारें तत्काल निकल जाती वैसे अणु-अस्त्र भो तत्काल काम में आ जाये तो संसार की क्या दशा हो सकती है, इसे हम सब जानते हैं। आज मनुष्य के लिए संतुलन बहुत ज्यादा जरूरी है, संयम बहुत ज्यादा जरूरी है। कुछेक लोगों का असंतुलन सारे संसार को संहार की स्थिति में ले जा सकता है। इसलिए आज के लोग उतने असंतुलित नहीं हैं और असंयत भी नहीं हैं, इस अर्थ में । पुराने जमाने की बात तो हम सुनते है कि बात-बात में तलवारें निकल जाती, लाठियां चल पड़तीं । मैं यह नहीं कहता कि आज आवेश कम हो गया है। आज भी मनुष्य में काफी आवेश है, काफी तनाव है । फिर भी जो अधिक जिम्मेवार लोग हैं वे अपने आवेश को क्रियान्वित नहीं करते।
असंतुलन का एक बड़ा कारण है-तनाव । तीन प्रकार का तनाव होता है-शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक । इन तीनों प्रकार के तनावों में सबसे ज्यादा खतरनाक होता है भावनात्मक तनाव । यह वैयक्तिक है। व्यक्ति में अपनी भावनाएं होती हैं, अपने आवेश और आवेग होते हैं। उन आवेगों पर यदि नियन्त्रण रखने का अभ्यास नहीं किया जाता है तो वे आवेग बढ़ते चले जाते हैं और बढ़ते-बढ़ते इतने खतरनाक बन जाते हैं कि व्यक्ति को सीमा से बाहर ले जा सकते हैं । भारी असंतुलन पैदा हो जाता है । यदि
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