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हम श्वास लेना सीखें
२३५ चलता है कि जिस पर काबू पाना काफी कटिन है। केशी स्वामी में गौतम से कहा-'भंते ! मन का घोड़ा दुःसाहसी, बड़ा भयंकर है जो दौड़ रहा है और आप उस पर चढ़े हुए हैं। फिर कैसे नहीं आपको वह कहीं ले जा रहा है। कहां नहीं भगा रहा है ? यह कैसे हो रहा है? मर्म चर्स हैं यह बात जैन ग्रन्थों में मिलेगी, वैदिक ग्रंथों में मिलेगी और बौद्ध ग्रन्थों में मिलेंगी। न जाने यह प्रश्न मैंने क्यों उपस्थित कर दिया । सचमुच आश्चर्य है। जहां सब ग्रन्थों में मिलता है कि मन चंचल है। हजारों-हजारों बार नहीं, लाखोंकरोड़ों बार हमारे वायु-मंडल में यह स्वर गूंजा है कि मन चंचल है और यहीं स्वर आज भी गंज रहा है। फिर यह कहना कि मन चंचल नहीं, बड़ा अजीब-सा है। मैं आपको एक सच्चाई पर ले जाना चाहता है और वह सचाई यह है कि मन को चंचल बनाने वाले दो तत्त्व हैं। एक वासना और एक वायु । ये मन को चंचल बनाते हैं। एक है हमारी अजित वासना । पुरानी भाषा में उसे कर्म और संस्कार कहा जाता हैं। आज की भाषा में कहूं तों अवचेतन मन में दमित वासना। हमने कर्मों का संचय किया। हमारे पास कर्मों का बड़ा संचय है । इन कर्मों की जब-जब प्रतिक्रियाएं होती हैं, कर्म के जब-जब विपाक होते हैं और वे कर्म जब-जब अपना परिणाम देते हैं, सक्रिय बनते हैं, जागृत होते हैं, मन चंचल हो जाता है। वे सारे संस्कार जब उभरते हैं तो मन ऐसा चंचल होता है कि जैसे पंखे की लाड़ियों । बिजली का प्रवाह इतना तेज आता है और तत्काल स्विच ऑन हो जाता है, मन चक्राकार घूमने लग जाता है। तेज गति से घूमने लगता है । बहुत सारे लोग तो अशांत और व्याकुल हो जाते हैं । वे विचार को, विकल्प को रोक नहीं पाते । इतना सोचने लग जाते हैं कि जितना सोचना शायद एक वर्ष में भी जरूरी नहीं होता । एक आदमी को एक वर्ष में जितना सोचना जरूरी नहीं है उतना एक दिन में वह सोच लेता है। चक्र-सा चलता रहता है, रोक नहीं पाता । चंचलता का एक कारण है-वासना, कर्म का संस्कार, कर्म का विपाक, कर्म का उदय और उसकी प्रेरणा और प्रतिक्रिया । क्रिया की प्रतिक्रिया । एक प्रश्न हुआ था कि मुक्त जीव यहां मुक्त हुआ हमारे जंगल में, और वह ऊर्ध्वलोक में कैसे चला जाता है ? यह समझाने के लिए एक उदाहरण दिया गया कि घड़ा चाक पर चढ़ाया हुआ है। चाक घूम रहा है। कुम्हार ने उसे घुमाना बन्द कर दिया, फिर भी वह घूमता जा रहा है। क्यों ? वही कारण बताया गया कि 'पूर्वप्रयोगात्' । अभी कुम्हार चाक को महीं घुमा रहा हैं
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