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एकला चलो रे
है ? सहज ही यह तर्क होगा । जहां बुद्धि है वहां तर्क होना स्वाभाविक है । मैं मानता हूं कि जीवन की बहुत सारी घटनाएं तर्क के कारण ही विकृत बनती हैं। जीवन की बहुत सारी समस्याएं तर्क के कारण ही उलझती हैं । आदमी स्वयं जब तर्क में जाता है तो सचाई नीचे रह जाती है, तर्क ऊपर चला जाता है । दोनों में कोई संगति नहीं होती। समस्या उलझ जाती है । श्वास लेना एक बात है और श्वास विधिवत् लेना दूसरी बात है । मैं मानता हूं आपके इस तर्क को कि जो जीता है, वह श्वास लेता है। ऐसा कोई नहीं होता कि जो जीता है वह श्वास नहीं लेता। श्वास लेना एक बात है, किन्तु श्वास कसे लिया जाए, श्वास कैसे लेना चाहिए यह बिलकुल दूसरी बात है। मैं आपको यह नहीं बता रहा हं कि श्वास लें। यह तो स्वाभाविक बात है, बताने की जरूरत नहीं है। इसके लिए कोई उपदेश की जरूरत नहीं, कोई 'सिखाने की जरूरत नहीं । रोटी के बारे में भी यही बात है । रोटी खाना एक बात है और रोटी कैसे खानी चाहिए, यह दूसरी बात है। पानी पीना एक बात है और पानी कैसे पीना चाहिए, यह दूसरी बात है। जो आदमी जान लेता है कि रोटी कैसे खानी चाहिए, जो आदमी जान लेता है कि पानी कैसे पीना चाहिए उसका सारा जीवन बदल जाता है। जो आदमी जान लेता है कि श्वास कैसे लेना चाहिए, उसका सारा जीवन बदल जाता है। प्रश्न है बदलने का कि कैसे बदला जाए ? तभी बदला जा सकता है कि हम जब इस बात को समझ लें कि कौन, कहां, कसे । ये प्रश्न हमारे जीवन में बहुत महत्त्व के होते हैं। कौन है कहां है और कैसे है-जब तक इन प्रश्नों पर गंभीर विमर्श नहीं करते तब तक समस्याएं नहीं सुलझतीं । द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव-हर वस्तु की मीमांसा इन दृष्टिकोणों से की जाती है। ___व्यक्ति का फोन आया ऑपरेटर के पास कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू बोल रहा हूं और तुम मेरे आदेश का पालन करो । एक बार आया, दो बार आया, सोचा क्या बात है, ध्यान नहीं दिया। तीसरी बार गुस्से में बोला-मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू बोल रहा हूं। तुम मेरे आदेश का पालन करो। ध्यान नहीं दिया तो बोला-तुम्हें पता नहीं कि मैं कौन बोल रहा हूं? ऑपरेटर ने कहा-महाशय ! मैं यह नहीं जानना चाहता कि आप कौन बोल रहे हैं, मैं तो यह जानना चाहता हूं कि आप कहां से बोल रहे हैं। उत्तर मिला---पागलखाने से बोल रहा हूं।
अब कौन बोल रहा है, इतने से काम नहीं चलता। कहां से बोल रहा
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