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पुरुषार्थ की नियति और नियति का पुरुषार्थ है-भगवान् सर्वव्यापी है । जब सर्वव्यापी है तो उसके सामने नग्न फिर कैसे हुआ जाए ! चाहे फिर मैं स्नान कितने ही एकान्त में करूं, आखिर भगवान् तो देखता है ?'
एक सिद्धान्त को इस प्रकार पकड़ लिया कि दृष्टि सम्यक् नहीं हुई । जब दृष्टि सम्यक होती है तब सिद्धान्त का ग्रहण दूसरी प्रकार से होता है। ठीक इसी घटना को तो दूसरे रूप में उद्धत करना चाहता हूं।
तीन शिष्य थे और तीनों शिष्यों की परीक्षा के लिए उपाध्याय ने कहा'ये कबूतर ले जाओ। जहां कोई न देखे, वहां इन्हें मारकर आ जाओ। एक गया और सोचा कि गुरु का निर्देश है कि जहां कोई न देखे । जंगल में गया और देखा कि इधर-उधर कोई नहीं देख रहा था, गर्दन काट दी और आ गया । दूसरा शिष्य भी एकांत स्थान में चला गया, गर्दन काट दी और आ गया। तीसरा बहुत गहरे पहाड़ों के बीच में चला। एकान्त स्थान, बिलकुल निर्जन स्थान जहां चिड़िया भी नहीं देखती। सोचा, बिलकुल एकान्त स्थान में पहुंच गया हूं। जैसे ही तैयारी करने लगा, उसे खयाल आया कि कोई मनुष्य नहीं देखता, कोई पशु नहीं देखता, फिर भी परमात्मा तो सर्वदर्शी है। वह तो सबको देखता है । गुरु का आदेश है कि कोई भी नहीं देखे । मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं? कबूतर को लेकर वापस गुरु के चरणों में आया और कहा--'यह आपका कबूतर प्रस्तुत है ।' गुरु ने कहा, 'अरे ! तूने आदेश का पालन नहीं किया। लगता है आलसी है। एकान्त में नहीं गया।' शिष्य में कहा-'मैं सबसे आगे गया हूं।' गुरु ने कहा-'देख लो, दोनों आ गए और इन दोनों ने मेरे आदेश का पालन किया है। ये गर्दन कटे हुए कबूतर पड़े हैं । तुमने कैसे नहीं किया ?' उसने कहा-'कैसे करूं ? मैं बहुत दूर गया, बहुत दूर गया। किन्तु जैसे ही आपके आदेश का पालन करने लगा, मेरे मन से एक बात उठी कि गुरु का आदेश है कि जहां कोई भी न देखे । तत्काल मेरे मन में यह एक स्फुरणा हुई कि भगवान् तो सब जगह देखता है। अब कहीं भी चला जाऊं, चाहे निर्जन से निर्जन स्थल में चला जाऊं किन्तु दुनिया में कोई भी स्थान ऐसा नहीं होगा कि जहां भगवान् न देखता हो, जहाँ परमात्मा न देखता हो, जहां सर्वदर्शी की ज्ञान-रश्मियां न पहुंचती हों। मैं लौट आया।'
सम्यक् दृष्टि में अन्तर होता है । बात एक थी, भगवान् की सर्वव्यापकता को उस महिला ने भी पकड़ा और भगवान् की सर्वव्यापकता को उस विद्यार्थी
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