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________________ प्राण-ऊर्जा का संवर्धन २१३ है । मध्य में देखते हैं तो मध्य का बन जाता है । पूरे शरीर को देखते हैं तो पूरा शरीर विद्युत-चुंबकीय बन जाता है। इसी आधार पर अवधिज्ञान को दो भागों में बांटा गया । अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है-एक मध्यगत अवधिज्ञान और दूसरा अन्तगत अवधिज्ञान । जब मध्य शरीर चुंबकीय क्षेत्र बनता है तो वह चेतना मध्य शरीर में से बाहर निकलने लग जाती है। जब अन्तगत यानी छोर का हमारा हिस्सा चुंबकीय क्षेत्र बनता है तो चेतना की सूक्ष्म रश्मियां उससे बाहर निकलने लग जाती हैं। अन्तगत अवधिज्ञान के चार प्रकार होते हैं-आगे से होने वाला अवधिज्ञान, पीछे से होने वाला अवधिज्ञान, दाएं भाग से होने वाले अवधिज्ञान और बाएं भाग से होने वाला अवधिज्ञान । क्या चैतन्य-केन्द्रों के बिना यह सारो प्रक्रिया समझी जा सकती है ? हमारा पूरा शरीर चैतन्य केन्द्रों का शरीर है। चारों ओर चैतन्य-केन्द्र हैं। यदि हम मध्यवर्ती चैतन्य केन्द्रों को विकसित करते हैं तो मध्य का ज्ञान होता है। आगे-पीछे का करते हैं तो आगे-पीछे का होता है। दाएं-बाएं चैतन्य-केन्द्रों को विकसित करते हैं तो दाएं-बाएं का ज्ञान होता हैं । मेरे मन में एक संदेह था कि आगे-पीछे, मध्य के चैतन्य-केन्द्र तो हमारी पकड़ में आ गए । दाएं-बाएं ये चैतन्य-केन्द्र नहीं समझे जा रहे थे । वहां कैसे चेतना की किरणें बाहर निकलेंगी, यह समझ में नहीं आ रहा था। हम इस खोज में थे । और बातें तो खोज ली गयी, किन्तु यह बात नहीं मिली थी। खोज होती है तो समाधान मिल जाता है । प्रश्न होता है तो उत्तर जरूर मिलता है। एक अमेरिकन भाई आया, प्रेक्षाध्यान की साधना के लिए। सूफी संप्रदाय को मानने वाला था। वह पहले ईसाई था, फिर मुसलमान बना और सूफियों के मत की उसने बहुत कड़ी साधना की, बहुत खोजा । बहुत घूमा। न जाने कितनी कब्रों के पास उसने समय बिताया। न जाने कितनी खोजें कीं, बड़ा कष्टसहिष्णु आदमी। आचार्यवर थे मोमासर में, जहां रेल नहीं । डूंगरगढ़ से भटकता-भटकता बसों में मोमासर पहुंच गया। पूछा, 'कैसे आए हो ?' बोला, 'लुधियाना से आया हूं। धर्मपाल ओसवाल ने हमें भेजा है प्रेक्षाध्यान की साधना के लिए।' बड़ा आश्चर्य हुआ, 'कैसे पहुंच गए ?' पूछता-पूछता पहुंच गया।' 'अच्छी बात है, क्या करना चाहते हो ?' 'प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करना चाहता हूं। अभ्यास शुरू किया । कायोत्सर्ग का अभ्यास शुरू किया। एक दिन, दो दिन किया तो बोला-'यह तो बड़ा रोचक है । मुझे बड़ा अच्छा लगता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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