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एकला चलो रे
चाहते हैं ?' 'हां, यही कहना चाहता है। तो बिलकुल ठीक है आपका कहना । पर मैं इसे स्वीकार नहीं करूंगा।' उन्होंने कहा कि 'आप बतलाएं।' मैंने कहा, 'बताऊंगा भी नहीं । जैन साहित्य में कहां है अभी आपको बिलकुल नहीं बताऊंगा। समय आने पर ही मैं बताऊंगा, अभी नहीं बताऊंगा। यह मैं आपको विश्वास के साथ कह सकता हूं कि चैतन्य-केन्द्रों की चर्चा जितनी जैन साहित्य में है उतनी हठयोग या तन्त्र-साहित्य में भी नहीं है। यह बहुत बड़ा विवाद का विषय है।' 'यह कैसे ?' मैंने कहा-'यह ऐसे हो रहा है कि हमारे पैरों के नीचे जो यह वसुंधरा है, रत्नों का भंडार है, सोने का भंडार भरा पड़ा है किन्तु हमारी दृष्टि नहीं कि उस भंडार को हम देख सकें । प्रेक्षाध्यान की खोज का आधार क्या रहा है और हमने इस तत्त्व को कैसे खोजा है, यह भी जानने की बात है । अवधिज्ञान तो कर्म-शरीर या सूक्ष्मतर शरीर के स्तर पर होने वाली एक घटना है । अतीन्द्रिय ज्ञान में अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये तीन ज्ञान आते हैं। सबसे पहला है अवधिज्ञान, जो सूक्ष्मतर शरीर की चेतना के स्तर पर होता है। अवधिज्ञान जिस व्यक्ति को होता है उसे देखने के लिए आंख के उपयोग की जरूरत नहीं । कान के उपयोग की जरूरत नहीं। वह इन्द्रियों से परे, अतीन्द्रिय चेतना के विकास के द्वारा दुनिया के किसी भी अंचल में होने वाली घटना को जान सकता है, साक्षात्कार कर सकता है । वह चेतना हमारे शरीर के भीतर है।
हमारे इस स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म शरीर के भीतर एक सूक्ष्मतर शरीर तथा उस सूक्ष्मतर शरीर के भीतर है चेतना। चेतना बाहर नहीं आती जब तक कि उस पर ढक्कन रहता है । ढक्कन को यदि हम जालीदार बना सकते हैं तो वह चेतना बाहर आ सकती है। यह ध्यान की प्रक्रिया दाएं-बाएं, आगे-पीछे, मध्य को देखने की प्रक्रिया है, इस शरीर को विद्युत्-चुंबकीय क्षेत्र बनाने की प्रक्रिया है । यदि हम अपने शरीर को विद्युत्-चुंबकीय क्षेत्र बना सकें तो वह जो भीतर में प्रकाश है वह छनछनकर बाहर आ सकता है । जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक भीतरही-भीतर चेतना रह जाएगी, बाहर नहीं आ पायेगी। यह देखने की जो प्रक्रिया है, वह शरीर को विद्युत्-चुंबकीय क्षेत्र बनाने की प्रक्रिया है। हम आगे से देखते हैं, आगे का हिस्सा विद्युत्-चुंबकीय बन जाता है। पीछे से देखते हैं तो पीछे का बन जाता है । दाएं-बाएं देखते हैं तो दाएं-बाएं का बन जाता
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