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प्राण ऊर्जा का संवर्धन
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जा रहे हों । यह शक्ति उसी में विकसित हो सकती है जिसने अपनी आन्तरिक शक्ति के स्रोत को प्रकट कर लिया हो ।
रविन्द्रनाथ के बारे में कहा जाता है कि वे पत्र लिख रहे थे । एक व्यक्ति आया मारने के लिए। हाथ में छुरा था । आकर खड़ा हो गया । उन्होंने देखा कि कोई व्यक्ति आया है, देख लिया । अपना काम करते रहे । उन्होंने कहा - 'क्या चाहते हो ?' उत्तर मिला – मैं तुमको मारना चाहता हूं ।' रवीन्द्रनाथ ने कहा - 'जरा ठहर जाओ। मुझे जरूरी पत्र लिखने हैं। पत्र लिख लूं, फिर तुम मार डालना ।' वह पीछे खड़ा है, छुरा रविन्द्रनाथ अपना काम करते चले जा रहे हैं । निश्चल भाव से रहे । कोई विचलन नहीं । व्यक्ति दंग रह गया । उसने सोचा, यह भी कोई आदमी है, मैं कैसे मारूं ? जो जीना जानता है, उसे मारने में कोई लाभ नहीं । सामने आकर पैरों में पड़ गया और छुरा हाथ से गिर पड़ा । यह अभय उस व्यक्ति में विकसित होता है जिसने आंतरिक शक्ति का स्रोत विकसित कर लिया हो ।
लिये और
काम करते
जयाचार्य ने लिखा है-- आचर्य भिक्षु अपने पथ पर चले तो उन्होंने इस संकल्प पर अपनी यात्रा प्रारम्भ की कि 'मरण धार सुध मग लियो' । उन्होंने पहले यह सोच लिया कि मरना है। मरने के भय को मन से निकाल दिया मरने के संकल्प को स्वीकार कर चले तो फिर कोई भय नहीं रहा । इत भय के प्रसंग आए, परिस्थियां आयीं की खाने की भी सुविधा नहीं थी । बहुत बार खाने को भी पूरा नहीं मिलता था । जयाचार्य का एक दूसरा पद है कि 'पंच बरस लग पेख अन्न पिण पूरो न मिल्यो । बहुत पण संपेख, घी चोपड़ तो किह्यां ही रह्यो' - आचार्य भिक्षु को पांच वर्ष तक तो खाने को पूरी रोटियां भी नहीं मिलीं। घी की तो बात ही छोड़ो। रोटियां भी नहीं मिलतीं तो घी की कहां बात । आचार्य भिक्षु से पूछा गया कि कहीं आपको घी मिलता है, गुड़ मिलता है, चीनी मिलती है ? आचार्यवर ने कहा - ' पाली के बाजार में बिकता हुआ देखता हूं ।'
क्या खाने की बात, कष्ट की बात, रोटी न मिलने की बात मन से निकल जाती है ? क्या कोई भय नहीं होता ? इतना भय होता है कि वहां जाता तो हूं, कल वहां रोटी मिलेगी या नहीं मिलेगी । आदमी इतना समझदार होता है कि पूरी बात सोच लेता है कि स्टेशन पर कुछ मिलने वाला नहीं है तो साथ में रखता है, बराबर व्यवस्था करके जाता है । बिना
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