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एकला चलो रे
जो बात अनुभव के स्तर पर जानी जा सकती है, वह मन, बुद्धि और - इन्द्रिय के स्तर पर कभी नहीं जानी जा सकती । ध्यान का अर्थ होता है सूक्ष्मलोक की यात्रा करना । और वह केवल अनुभव के स्तर पर ही की जा • सकती है । जब सूक्ष्मलोक की यात्रा होती है तब स्थूल पदार्थ मिटकर सूक्ष्म पदार्थ प्रकट होते हैं, उनका साक्षात्कार होता है । उस अवस्था में ध्यान के उद्देश्य अपने-आप पूरे होने लग जाते हैं । यह स्वार्थ की संकुचित सीमा भी - मिटने लग जाती है, क्षुद्रता भी मिटने लग जाती है, महानता का साक्षात्कार होने लग जाता है और हमारी वृत्तियां भी बदलने लग जाती हैं । पूरा का पूरा यह चक्र टूटता है तो दूसरे चक्र में हमारा प्रवेश हो जाता है ।
इसलिए बहुत आवश्यक है, हम इन महान् उद्देश्यों की प्रगति के लिए म किसी विद्यालय की शरण में जाएं, न किसी विश्वविद्यालय की शरण में • जाएं, न पुस्तकों की शरण में जाएं, किन्तु एक अनुभवी की शरण में जाए । अनुभव के मार्ग को चुनें। अनुभव का मार्ग सचमुच अपूर्व मार्ग होता है, - अलौकिक मार्ग होता है । गुरु का काम होता है कि शिष्य को अनुभव के -मार्ग में चला दें। मैं स्वयं देखता हूं, स्वयं सोचता हूं कि मैंने लगभग दस. बारह वर्ष तक प्राकृतिक चिकित्सा, आसन, प्राणायाम, योग के ग्रंथ बहुत पढ़ े, पढ़ने का अवसर बहुत मिला और बहुत पढ़ । पढ़ता रहा, पढ़ता - रहा । बौद्धिक व्यायाम करता रहा, करता रहा। पर जो मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। जहां पहुंचना चाहिए था वहां नहीं पहुंचा । किन्तु गुरु गुरु होता है । आचार्यश्री का एक शब्द निकला कि हमें जैन परम्परा में विलुप्त ध्यान की पद्धति का पुन: अनुसन्धान करना है। बस, इस एक शब्द ने अनुभव का मार्ग खोल दिया ।
जयपुर के नाड़ी - वैद्य सुशीलकुमार आए और बोले - 'मैं 'जैनयोग' पढ़ रहा हूं । पढ़ने पर मुझे ऐसा लगा कि आपने केवल तेरापंथ का नहीं, समूची जैन परम्परा पर एक विशेष उपकार किया है । ध्यान की पद्धति जो हमारे हाथ से निकल गयी थी, हम जिस बात से शून्य हो गए थे, आज हम गौरव के साथ अपने को भरा-पूरा अनुभव कर रहे हैं।' यह गुरु का अवदान, अनुदान या वरदान होता है कि वह शिष्य को अनुभव के मार्ग पर चला सकता है ।
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