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सूक्ष्मलोक की यात्रा
२०५.
लोक में जाना बौद्धिक स्तर पर कभी सम्भव नहीं होता । बुद्धि की अपनी सीमा होती है । पढ़ने वाला व्यक्ति चाहे मनोविज्ञान को पढ़े, चाहे अध्यात्मविज्ञान को पढ़ े, वह बुद्धि की सीमा तक ही उसे पढ़ पाएगा, उसे जान पाएगा अनुभव की सीमा में हमारा प्रवेश होता है ध्यान के द्वारा । बहुत भाई आते हैं और कहते हैं कि इतने दिन शिविर में हम नहीं रह सके, अब हमें सारा बतला दें। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आदमी हमेशा शॉर्टकट ही पसन्द करता है | और आजकल की मिनी सभ्यता चल पड़ी है कि हर बात में मिनी मार्ग चाहता है । हमेशा पगडंडी का मार्ग चाहता है । मैंने कहा- 'भाई ! आप कोई सवाल पूछो, तो मैं उत्तर दे दूंगा । पर तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा । जैसे तुम हो वैसे के वैसे रहोगे, नहीं समझ पाओगे कि क्या होता है । मैं देखता हूं, शिविरार्थियों का अनुभव सुनता हूं और उनकी बात सुनता हूं तो लगता है कि चार पांच दिन पहले उनका अनुभव था बिलकुल जीरो और आज उन्हें लग रहा है कि कुछ हो रहा है ।
ध्यान की पद्धतियां चल
यह ।' एक ने तो
आज ही दो अनुभवी व्यक्ति आए और बोले— 'चैतन्य - केन्द्र पर लेश्या ध्यान का प्रयोग किया, बड़ा इन्टरेस्ट आया । बड़ा रोचक है यह तो । कहना चाहता हूं कि लेश्या ध्यान की विधि, जितनी रही हैं, शायद किसी में नहीं हैं । एक विशेष प्रयोग कहा कि और ध्यान के प्रयोग करता हूं, तब तो मेरे है कि यह प्रेक्षा ध्यान की पद्धति जैनों की पद्धति है, है ? किन्तु जब लेश्या ध्यान का प्रयोग किया तब मैं बहुत स्पष्ट हो गया कि यह तो सचमुच ही जैनों की पद्धति है । आज तक मैंने न कहीं देखा, न पढ़ा, न सुना कि यह प्रयोग कहीं चल रहा है ।
मन में यह प्रश्न होता
क्या दूसरों में ऐसा नहीं
हम अनुभव की बात यदि चाहें तो हमें प्रयोग पर उतरना होगा । यह बौद्ध मार्ग नहीं है कि आपने दस प्रश्न पूछ लिये, उत्तर मिला और समा धान मिल गया । एक हजार प्रश्नों की तालिका बना ली । हजार प्रश्नों का उत्तर पा लें और पूरे हजार दिन लगा दें, एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एक - एक दिन भी लगा दें और परिणाम - काल में जब आयेगा कि क्या पाया - कुछ भी नहीं पाया, जैसे थे वैसे के वैसे बिलकुल शून्य । और आप दस दिन का प्रयोग करें, दस दिन के बाद आपसे पूछा जाए कि आपने क्या पाया तो मुझे लगता है कि सौ में से निन्यानवे व्यक्ति तो कुछ-न-कुछ बतलाएंगे कि मैंने यह अनुभव किया, मैंने वह अनुभव किया ।
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