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एकला चलो रे
उसे रस का अनुभव होने लग जायेगा | स्वाद- तन्तु स्वाद का अनुभव करते हैं । किन्तु जीभ पर कोई भी चीज नहीं रखी गयी, फिर भी जिस व्यक्ति ने . जिह्वा पर ध्यान का विशेष अभ्यास किया है, जीभ की नोक पर ध्यान को साधा है, लम्बे समय तक इसका प्रयोग किया है, उसे बिना वस्तु के भी इसका अनुभव होने लग जायेगा । 'मनोनुशासनम्' को पढ़ें। इस विषय की बहुत लम्बी चर्चा उसमें । जब हमारा मन सूक्ष्मलोक की यात्रा शुरू करता है तब बिना सामने होते हुए भी विषय प्रस्तुत हो जाते हैं। विषय तो प्रस्तुत ही है । स्थूल जगत् में तो थोड़े-से विषय आए हैं । किन्तु सूक्ष्म जगत् में तो भरे पड़े हैं । केवल इतना अन्तर होता है कि हम इन्द्रियों की सीमा को पार कर सकें, सूक्ष्म में प्रवेश पा सकें। यह सूक्ष्म में प्रवेश पाने वाली बात बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
कभी-कभी ऐसा होता है कि विशेष स्थिति आती है तो दो विरोधी वातें भी मिल जाती है और विरोधी अनुभव भी होने लग जाते हैं । कड़वे और मीठे का एक साथ अनुभव होने लग जाता है । कभी-कभी सुगंध और दुर्गन्ध का भी एक साथ अनुभव होने लग जाता है | चेतना की विभिन्न परिस्थितियों में इतना घटित होता है, आज तक मनोवैज्ञानिक भी उसका ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं कर पाए हैं। और न ही कर पाने का रास्ता स्पष्ट है कि उनकी चेतना विषयक मान्यताएं भी अभी विकसित नहीं हैं । किन्तु आश्चर्य इस बात का होता है कि हमारे अध्यात्मशास्त्र में चेतना की इतनी सूक्ष्म - स्थितियों का विश्लेषण और निरूपण मिलता है, उसे आज तक किसी विश्वविद्यालय ने एक विद्याशाखा के रूप में महत्त्व नहीं दिया, उसका मूल्यांकन नहीं किया । किन्तु कोई भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं होगा जहां फिलॉसफी का विभाग न हो और उसके साथ साइकोलॉजी का डिपार्टमेंट न हो या दोनों साथ-साथ न हों । दर्शन पढ़ना है तो मनोविज्ञान भी पढ़ना होगा । आज यह अनिवार्य हो गया है । जब मनोविज्ञान पढ़ना अनिवार्य है तो अध्यात्म का अध्ययन अनिवार्य नहीं हैं ? पर हमारा ध्यान ही नहीं गया और इसलिए नहीं गया कि कभी प्रस्तुत ही नहीं किया गया । यह सचाई है कि चेतना के विभिन्न स्तरों का, चेतना की नाना अवस्थाओं का जितना तलस्पर्शी और सूक्ष्म विवेचन आज भी अध्यात्मशास्त्र में है उतना मानसशास्त्र में नहीं है । वह अभी तक बहुत अविकसित अवस्था में चल रहा है ।
हम ध्यान के द्वारा चेतना के उस लोक में विचरण करते हैं जिस सूक्ष्म
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