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________________ सूक्ष्मलोक की यात्रा २०३७ जैन आचार्यों ने एक बहुत बड़ी कल्पना या सचाई रूपक की भाषा में प्रस्तुत की थी कि पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के सूक्ष्म जीव होते हैं । एक सुई की नोक पर टिके उतने स्थान में असंख्य या अनन्त जीव समा जाते हैं। बड़ी विचित्र बात लगती है। शरीरशास्त्र की दष्टि से एक आल'पिन को सिरा टिके इतनी दूर में करोड़ों कोशिकाएं हो जाती हैं। कितनी विराट् है हमारी दुनिया ! किन्तु बहुत अच्छा है कि इन्द्रियों उन्हें देख नहीं पातीं। यदि देख पाती तो बेचारी बहत उलझ जातीं। ध्यान करने वाला व्यक्ति इस स्थूलता की सीमा को लांघकर सूक्ष्म जगत् में प्रवेश शुरू करता है । वह इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध को तोड़कर दुनिया से परे जिन्हें आज तक दुनिया नहीं जान पायी, उसकी यात्रा शुरू करता है और उस स्थिति में जो मनोबल क्षीण होता है वह बढ़ने लग जाता है । - हम रस का अनुभव और गंध का अनुभव करते हैं । जीभ के द्वारा रस का अनुभव होता है और घ्राण के द्वारा गंध का अनुभव होता है । ध्यान करने वाला व्यक्ति प्राण केन्द्र पर ध्यान करता है, नासाग्र पर ध्यान करता है । यदि लम्बे समय तक प्राण,केन्द्र का ध्यान करें तो कोई गंध आसपास में नहीं है, फिर भी उसका अनुभव होने लग जाता है। ____ लाडनूं में जैन विश्व भारती में शिविर था। एक भाई आकर बोला'आज अगरबत्ती किसने जलाई ?' कहा गया--'किसी ने नहीं जलाई ।' उसने फिर कहा, 'क्या यहां किसी ने गुलाब का इत्र लगाया है ?' उत्तर मिला, 'किसी ने नहीं लगाया ।' उसने कहा, यह कैसे हो सकता है ? मैं कैसे मानूं ? मुझे सुगन्ध आ रही है । बहुत तीव्र सुगन्ध आ रही है । आप देखें, किसी ने अगरबत्ती जलाई हो ..या इत्र लगाया हो।' ___ मैंने कहा-न तो किसी ने अगरबत्ती जलायी और न किसी के पास गुलाब का इत्र है। मानने की, मनवाने की कोई बात नहीं। आपने जब प्राण पर ध्यान किया, ध्यान जम गया, लम्बा चला, उस समय आपकों यह गंध का अनुभव होने लग गया। हमारे आकाश-मंडल में सब गंध के परमाणु भरे पड़े हैं । कोइ भी गंध ऐसी नहीं कि जिसके परमाणु हमारे आसपास में न भरे हुए हों। भरे हुए हैं, किंतु हमारे ज्ञान-तन्तु सोये हुए रहते हैं । जब ध्यान के द्वारा वे सोये हुए ज्ञान-तन्तु जागृत हो जाते हैं, सक्रिय हो जाते हैं तो फिर नाना प्रकार की गंधों का अनुभव होने लग जाता है। हमारी जीभ में रस का अनुभव करने की क्षमता है । जीभ पर जो चीज टिकाओ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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