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________________ २०२ एकला चलो रे बदलाव आएगा और आपको लगने लग जाएगा कि यह व्यक्ति कुछ कर रहा है । यह अनिवार्य कसौटी है। ध्यान के ये तीन उद्देश्य हैं। - अब प्रश्न कि इनकी पूर्ति कैसे हो ? हम मन की चेतना के स्तर पर जीते हैं, बुद्धि की चेतना के स्तर पर जीते हैं और इन्द्रियों की चेतना के स्तर पर जीते हैं। जब तक इन्द्रिय-चेतना और मानसिक चेतना का सम्बन्ध जुड़ा रहेगा, तब तक हमारा मनोबल कम होता चला जाएगा, मन की शक्ति क्षीण होती चली जाएगी और तब तक यह ध्यान का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। यदि हम ध्यान की सफलता चाहते हैं, इन उद्देश्यों की पूर्ति चाहते हैं तो हमें इन्द्रिय और मन के संबंध का विच्छेद करना होगा । इन्द्रियों का और मन का सम्बन्ध विच्छिन्न होगा तो सूक्ष्म लोक की यात्रा शुरू हो जाएगी। हमने स्थूल जगत् को सब कुछ मान रखा है और उसी के सहारे चल रहे हैं । हमने जितनी दुनिया को देखा है, दुनिया उतनी ही नहीं है । बहुत छोटी है दुनिया हमारे समाने, हमारी इन्द्रियों के द्वारा उपलब्ध होने वाली दुनिया तो बहुत छोटी है और इन्द्रियों के द्वारा अगम्य दुनिया बहुत विराट है। - हमने विराट का अभी दर्शन नहीं किया है, केवल एक छोटे कण का ही दर्शन किया है। हमारी इन्द्रियों की क्षमता बहुत सीमित है । हम केवल स्थूल लोक की यात्रा कर रहे हैं। स्थूल लोक को भी हमने बहुत बड़ा मान रखा है। एक आदिवासी यदि जयपुर में आएगा तो उसे लगेगा कि शहर कितना बड़ा होता है । जिसने पांच-सात झोंपड़ियां ही देखी हों, जो जंगल में रहा हो और इक्की-दुक्की झोंपड़ियां ही इधर-उधर देखी हों, यदि जयपुर में से निकल जाए और पांच-दस किलोमीटर शहर में चलता चले तो उसे कैसा अनुभव होगा? उसे लगेगा कि क्या सारी दुनिया शहर ही बन गई है ? इतना बड़ा लगेगा कि वह कल्पना ही नहीं कर पाएगा। - हमने अभी दो-चार झोंपड़ियां ही देखी हैं। हमारी इन्द्रियां, ये पांचों इन्द्रियों को ही पांच-सात झोंपड़ियां दिखाती हैं । एक अर्थ में तो हम पूरे आदिवासी हैं, जंगली हैं । केवल की यात्रा करते हैं। कुछेक बातों को जानते हैं और देखते हैं। जिस दिन हमारा किसी महानगर में प्रवेश होगा और महानगर की यात्रा करेंगे तब आंखें खुलेंगी कि कितना विराट् है यह महानगर । कितनी विराट् है वह महादुनिया ! सूक्ष्म-जगत् के स्तर जब खुलते हैं, परतें जब उभरती हैं, तब पता चलता है कि जिसको एक बिन्दु माना था वह बिन्दु भी इतना विराट् है कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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