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________________ सूक्ष्मलोक की यात्रा २०१ को चोट लगती है, कल्पना खण्डित होती है तो आदमी पश्चात्ताप से भर जाता है। मेरे मन में यह कल्पना थी और वह कल्पना टूट गई-बस इस बात को जीवन भर रोता है, दुखड़ा गाता है, कलपता रहता है, केवल काल्पनिक जगत को सामने रखकर । ऐसा होता है, बहुत होता है। - भिखारी सो रहा था। हंडिया भीख मांगने की सिरहाने थीं। नींद आयी । सपना आया । दिन में राजा की सवारी देखी थी। वही बात मन में बसी रही। अब सपने में देख रहा है कि मैं 'राजा' बन गया हूं। मेरी सवारी निकल रही है। अब महल में आ गया हूं। अब शैया पर सो रहा हूं। रानियां चारों ओर खड़ी हैं और पगचंपी कर रही हैं। ठीक राज्यत्व का अनुभव कर रहा है और उसी स्थिति में जी रहा है। इतने में कुतिया आयी। सिरहाने हंडिया में कुछ बासी बर्चा था, दुर्गन्ध आ रही थी। चाटना शुरू किया । हंडिया फूटी, नींद टूटी, सपना टूटा और राज्य भी विलीन हो गया । अब बड़ा पछतावा हुआ—अरे ! मैं तो राजा बन गया था। कहां राजा ? कहां रानियां ? कहां पगचंपी ? कहां सवारी ? अब उन सारी बातों को याद कर वह रोने लग गया। इन सपनों के सहारे, कल्पना के सहारे, काल्पनिक राज्य के वैभव के सहारे जो व्यक्ति यथार्थ को झुठलाता है और दुःखी जीवन जीता है उसकी महानता नहीं जाग सकती । महानता के लिए दो सूत्र बहुत जरूरी हैं १. हम यथार्थ को यथार्थ के साथ स्वीकार करें। २. कल्पना को कल्पना जितना ही मूल्य दें और जीवन को कल्पना के स्तर पर न जीएं। - तीसरी बात है--संज्ञाओं का परिवर्तनवृत्तियों का परिवर्तन । हमारी चेतना में अनेक संज्ञाओं का मैल जमा हुआ है । वृत्तियां छायी हुई हैं। आहार की आसक्ति, भय, वासना, क्रोध, घणा ईर्ष्या, अहंकार, लालचनाना प्रकार की संज्ञाएं और वृत्तियां छायी हुई हैं । ये वृत्तियां बदलें । मैं यह तो नहीं मानता कि ध्यान की साधना करने वाला व्यक्ति दस दिन में ही कोई वीतराग बन जाएगा। यह स्वीकार करना भी एक दम्भ होगा, किन्तु यह स्वीकार करना होगा कि कोई व्यक्ति ध्यान करता चला जाए, दस महीने बीत जाएं, दस वर्ष बीत जाएं और कोई भी वृत्ति बदले ही नहीं, बदलना शुरू ही न हो तो मान लेना चाहिए कि ध्यान नहीं हो रहा है। जिस व्यक्ति ने ध्यान की साधना शुरू की है, उसकी वृत्तियों में, व्यवहार में निश्चित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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