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सूक्ष्मलोक की यात्रा
हमारी स्वार्थ चेतना समाप्त हो और परमार्थ की चेतना जागे, क्षुद्रता मिटे और महानता प्रकटे ; नीचे ले जाने वाली संज्ञाएं और वृत्तियां मिलेंये तीन महान् उद्देश्य हैं ध्यान की साधना के । ध्यान की साधना के द्वारा यदि परमार्थ की चेतना नहीं जागती, महानता विकसित नहीं होती, संज्ञाएं और वृत्तियां नहीं बदलतीं, तो मान लेना चाहिए कि ध्यान की साधना नहीं हो रही है, ध्यान के नाम पर कुछ और हो रहा है, केवल आंखें मुंदी हुई हैं, केवल शरीर ढीला है, मुद्रा ध्यान की है, किन्तु जो होना चाहिए वह नहीं हो रहा है। प्रवृत्ति सही होगी तो निश्चित ही परिणाम होगा। यह एक नियति है कि जिस प्रकार की प्रवृत्ति होगी उसी प्रकार का परिणाम होगा। इस नियति को बदला नहीं जा सकता। ध्यान यदि सही ढंग से हो रहा है तो निश्चित ही परमार्थ की चेतना जागेगी, वृत्तियां बदलेंगी और महानता प्रकटेगी। - हम बदला हुआ व्यक्तित्व देखना चाहते हैं। एक बच्चा जन्म लेता है । माता-पिता उसे पाठशाला में भेजते हैं। इसीलिए कि वह बदले, जैसा है, वैसा ही न रहे। साक्षर बने, पढ़ा-लिखा बने, आगे जाकर विशेषज्ञ बने । बौद्धिक स्तर पर बदले, मानसिक स्तर पर बदले तथा व्यवहार और आचरण के स्तर पर बदले । हर व्यक्ति बदले हुए व्यक्तित्व की अपेक्षा रखता है। जो जैसा है, वैसा देखना नहीं चाहता, वैसा कोई होना और रहना भी नहीं चाहता । ध्यान के द्वारा यह परिवर्तन होना चाहिए, हमारो स्वार्थ की चेतना मिटनी चाहिए। स्वार्थ की चेतना व्यक्ति को क्षुद्र बनाती है । क्षुद्रता संज्ञाओं
और वृत्तियों को उभारती है । एक चक्र है-स्वार्थ, क्षुद्रता और वृत्तियों का उभार । दूसरा चक्र है-जब चेतना परमार्थ की होती है तो महानता जागती है । जब महानता जागती है तो वृत्तियां शांत-प्रशांत होती हैं।
स्व की चेतना कलुषित होती है। परमार्थ का यही अर्थ है कि चेतना में से कलुपता का अंश धुल जाए, जो मैलापन है वह धुल जाए, निर्मलता आ जाए। कलुषता समाप्त हुई और चेतना परमार्थ की बन गई । कलुषता होती है तो क्षुद्रता आती है।
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