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एकला चलो रे
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जो सत्य की खोज में जाता है, उन सभी को वही बात मिलती है जो यहां मिलती है । उनके लिए देश और काल की सारी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं ।
एकांतवास का अर्थ है - एकांत में रहने का अभ्यास, एकांत का प्रयोग । दूसरा अर्थ है - एकत्व का अनुभव । एकांतवास का तीसरा अर्थ है - प्रतिस्रोत गमन की क्षमता । भीड़ में चलना, स्रोत के साथ-साथ चलना -- यह गमन का एक प्रकार है । दूसरा, भीड़ से विमुख होकर चलना । अनुसरण को छोड़ना --- प्रतिस्रोत में चलना है। बहुत सहज होता है अनुस्रोत में चलना । स्रोत बह रहा है, कोई भी तिनका आएगा, स्रोत में बह जायेगा । कोई भी चीज आती है, स्रोत में बह जाती है । स्रोत के प्रतिकूल चलना, बहुत कठिन साधना है । भीतन्त्र आज का ही नहीं है, मनुष्य का समाज बना तब से चल रहा है । जब से मनुष्य ने व्यक्ति से अपने आपको समाज में ढाला तो अनुसरण की वृत्ति विकसित हुई । गीता का सूत्र है कि जो श्रेष्ठ आचरण करता है, दूसरा उसी का अनुसरण करता है । बड़ा कठिन प्रश्न है कि कौन श्रेष्ठ ? कभी-कभी तो श्रेष्ठ आदमी भी ऐसा आचरण कर लेता है कि अगर दूसरा उसका अनुसरण करे तो बड़ी समस्या पैदा हो जाती है । क्या श्रेष्ठ कोई प्रमाद नहीं करता ? क्या श्रेष्ठ कोई भूल नहीं करता ? क्या श्रेष्ठ से कोई गलती नहीं होती ? यह सब होता है, तो फिर यह कैसे होगा कि उसका अनुसरण ही हो ? श्रेष्ठ का अनुसरण एक बात है किन्तु सापेक्ष बात है । हर बात में आज अनुसरण की बात चल पड़ी और ऐसी मनोवृत्ति बन गई कि मैं क्या करू ं, सब लोग ऐसा करते हैं । एक आदमी बहुत बड़ी गलती करता है, चोरी करता है, अप्रामाणिकता का व्यवहार करता है। कहा जाए कि तुम ऐसा करते हो तो कहेगा- क्या मैं ही ऐसा करता हूं, सब क्यों कह रहे हैं ? यह सबके पीछे चलने की मनोवृत्ति, वृत्ति, यह भीड़तन्त्र समाज के साथ ऐसा जुड़ गया कि हम कठिनाइयों से, समस्याओं से, बुराइयों से अपने आपको अकेला रखने की स्थिति में नहीं हैं । सोचने का तरीका भी यही हो गया ।
कर रहे हैं, मुझे अनुसरण की मनो
जब समाज को हम इस दृष्टि से देखते हैं, कि सब लोग ऐसा करते हैं और यदि मैं ऐसा न करूं तो क्या फर्क पड़ेगा अथवा सब लोग ऐसा नहीं करते हैं और मैं ऐसा करूं तो क्या फर्क पड़ेगा ? दोनों बातें हमें सत्य से दूर ले जाती हैं । एकत्व का अनुभव करने वाला व्यक्ति, भीड़तन्त्र को न मानने
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