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एकला चलो रे कर प्रतिक्रिया जागी, इतनी भयंकर प्रतिशोध की आग की लपटें उठने लगीं कि वह सब कुछ भूल गया। घटना तो घट गई। पिता मुनि बन गया, भानजा राजा बन गया । वह प्रतिशोध के झूले में जीवन भर झूलता रहा। महामात्य अभयकुमार ने समझाया । औरों ने भी समझाया कि तुम ऐसा मत करो। इस घटना को भुला दो, मन से निकाल दो। तुम्हारा शरीर भी ठीक नहीं हो रहा है । शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य-सब गड़बड़ा रहा है । धार्मिक भी था, धर्म की आराधना, प्राणियों के साथ मैत्री की भावना भी करता । क्षमायाचना भी करता । जब सांवत्सरिक पर्व आता, तो क्षमायाचना भी करता, किन्तु एक बात छोड़ देता । बोलता, '८४ लाख जीव योनियां हैं। सबके साथ अनजाने में कोई अप्रिय व्यवहार हुआ हो तो क्षमायाचना करता हूं, केवल पिता को छोड़कर।' एक बात छुट जाती है । इसलिए कि औरों ने कोई अपराध किया हो तो मैं क्षमा कर सकता हूं, क्योंकि वे पर हैं, दूसरे हैं, किन्तु मेरा पिता मेरे साथ ऐसा व्यवहार करे, कभी क्षमा नहीं कर सकता। __ ये सारी मनोवृत्तियां हमारी बनती हैं व्यक्ति को भुलाने के कारण । इस मनोविज्ञान को हम कभी न भूलें कि मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह सम्बन्ध को सामने रखकर निर्णय लेता है, क्योंकि वह सम्बन्धों को सामने रखकर जीता है, सम्बन्धों को भोगता है, सम्बन्धों का निर्वाह करता है। किन्तु सम्बन्ध तो सम्बन्ध होते हैं, सचाई-सचाई होती है। हम दोनों को एक. तराजू में नहीं तोल सकते । दोनों की अलग-अलग तुलाएं होती हैं।
यह अध्यात्म का एक महान् सूत्र है–समूह में रहते हुए भी एकांत का अनुभव करना । साधना करने वाले व्यक्ति के लिए यह परम वांछनीय है । जिस व्यक्ति ने अकेलेपन का अनुभव किया उसने सचमुच अपनी चेतना को बदल दिया, अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर लिया।
आपने पढ़ा होगा, रूस के महान् साधक गुजिएफ इसका बहुत प्रयोग करवाते थे । तीन महीने का प्रयोग करवाते थे कि एक हॉल में १०, २०, ३० आदमी एक साथ रहें। साथ में खाएं-पीएं-जीएं पर निरन्तर 'मैं अकेला हूं' इस बात का अनुभव करते रहें। जो एकत्व अनुप्रेक्षा का सूत्र था, वही उसने काम में लिया । सत्य पर किसी का अधिकार नहीं होता। सत्य सार्वभौम होता है।
हिन्दुस्तान का व्यक्ति हो या रूस का व्यक्ति हो, चाहे दुनिया के किसी कोने में जन्म लेने वाला व्यक्ति हो, जो अध्यात्म की भूमिका में जाता है,
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