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"एकला चलो रे
१६१ को भी नहीं भुला सकता । बराबर उसकी दृष्टि में यह सचाई तैरती रहेगी कि मैं समाज से जुड़ा हुआ है, सम्बन्धों से, सम्पर्कों से जुड़ा हुआ हूं। ये सारे सम्पर्क, ये सारे सम्बन्ध, ये सारी व्यवस्थाएं, ये सारी उपयोगिताएं जो हैं मैं 'इन्हें मानता हूं, स्वीकार करता हूं, उपयोग लेता हूं, देता हूं, विनिमय करता हूं, सब कुछ है, परन्तु इतना होने पर भी अन्तिम बात यह है कि आखिर मैं व्यक्ति हूं-अकेला हूं। यह सचाई जिस व्यक्ति के सामने रहती है वह हर बात पर क्रुद्ध नहीं होगा, बात-बात पर आवेश में नहीं भर जाएगा। बातबात पर दुःखी नहीं बनेगा । वह सोचेगा कि यह दुनिया का स्वभाव है, ऐसा होता है।
पिता ने पुत्र को धोखा दिया । पुत्र ने पिता को धोखा दिया। पत्नी ने पति को धोखा दिया । पति ने पत्नी को धोखा दिया। मां ने बेटे को और बेटे ने मां को धोखा दिया । जो व्यक्ति अकेला होना जानता है, अकेलेपन की महत्ता को जानता है वह इतने में बात को समाप्त कर देगा कि यह दुनिया का स्वभाव है, न हो तो कोई आश्चर्य नहीं । बात समाप्त हो जाती है। दो मिनट में घटना का प्रभाव समाप्त हो.जाता है । दुःख के गहरे बादल नहीं उमड़ते । किन्तु जो इस बात को नहीं जानता, वह तो वर्षों तक भार ढोएगा कि मैं इस बात को नहीं भूल सकता कि मां ने मेरे साथ क्या व्यवहार किया था। और कोई दूसरा करता है तो मुझे कोई कष्ट नहीं होता है, किन्तु मेरे पिता ने इतना पक्षपात किया कि एक भाई को तो इतना दे दिया और मुझे अंगूठा दिखा दिया। मैं इस बात को नहीं भूल सकता। और कुछ हो सकता है किन्तु मेरे पिता ने मेरे साथ जो शत्रुता की है वह जीवन भर तो क्या, जन्मान्तर तक भी नहीं भूल सकता।
भगवान महावीर के जमाने की घटना है। राजा ने सोचा कि लड़के को राज नहीं दूंगा । नीति खराब नहीं, कोई वैरभाव नहीं। सोचा, कि एक सामान्य सिद्धांत चलता है-राजेश्वरी नरकेश्वरी । राजा होता है, वह नरक में जाता है । मैं अपने पुत्र का हित चाहने वाला यह कैसे कर सकता हूं कि मेरा बेटा नरक में जाए ? उसे राजा नहीं बनाऊंगा। मैं स्वयं संन्यासी बन रहा हूं। उसे इसमें क्यों फंसाऊं ? बहुत अच्छी बात सोची। पुत्र को राज्य नहीं दिया । जो भानजा था, उसे राजा बना दिया । अब पुत्र के मन में एक प्रतिक्रिया पैदा हुई । पिता ने कितना अन्याय किया ? मुझे राज्य नहीं दिया। उसे राज्य पर बिठा दिया, जिसका राज्य से कोई सम्बन्ध नहीं। इतनी भयं
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