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________________ एकला चलो रे १८६. करता और मालिक तत्काल गुस्से में आ जाता है। एक बराबर का आदमी कोई बात स्वीकार नहीं करता तो जल्दी गुस्सा नहीं आता। नौकर कोई बात नहीं मानता तो मालिक तिलमिला उठता है। लड़का पिता की बात नहीं मानता है तो पिता क्रोध से आगबबूला हो जाता है, इसलिए कि उसने अपने एकत्व को भुला दिया कि मैं अकेला हं। यदि इसकी सतत स्मृति रहे तो वह सोचेगा कि जैसा मेरा अस्तित्व, वैसा ही सामने वाले का अस्तित्व । मेरी स्वतन्त्र चेतना तो इसकी भी स्वतन्त्र चेतना । मुझे यदि अपना स्वतन्त्र निर्णय लेने का अधिकार है तो उसे भी अपना स्वतन्त्र निर्णय लेने का अधिहै। यदि अकेलेपन की अनुभूति सुरक्षित रहे तो कोई कठिनाई नहीं होती, बार-बार आवेश आने की परिस्थिति नहीं बनती। उस स्थिति में हम अकेलेपन की बात को भूलकर और सम्बन्ध को इतना 'सत्य' मान लेते हैं कि सम्बन्धों के आधार पर हजार बार दुःखों का भार ढोते रहते हैं । पति-पत्नी के झगड़े, पिता-पुत्र के झगड़े, मालिक और नौकर के झगड़े-ये सारे झगड़े, सारे विवाद, सारे संघर्ष जो निकटता के परिपार्श्व में होते हैं, निकटता की भूमिका पर होते हैं, वे सारे के सारे अपने आपको अकेला न मानने के कारण होते हैं। समाज एक सचाई है, किन्तु व्यक्ति उससे बड़ी सचाई है। व्यक्ति स्वाभाविक सचाई है और समाज एक व्यवस्थापित सचाई है। समाज को हमने व्यवस्थित किया है, अपनी सुविधाओं के लिए, अपनी उपयोगिता के लिए। किन्तु उल्टा हो गया-हमने समाज को तो सत्य मान लिया और व्यक्ति को बिलकुल भूला दिया। दोनों दृष्टियों को हम न भूलें। एक वास्तविक सत्य होता है और एक व्यावहारिक सत्य होता है। समाज एक व्यावहारिक सत्य है और व्यक्ति वास्तविक सत्य है। जहां-जहां व्यक्ति की विस्मृति होती है वहां-वहां समस्या पैदा होती है। चाहे समाजवादी व्यवस्था हो, चाहे कोई दूसरी व्यवस्था हो, जहां व्यक्ति को सर्वथा गौण कर दिया जाता है वहां अनपेक्षित कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं । वर्तमान की चिंतनधारा में जो सबसे बड़ी कठिनाई पैदा हुई है वह यह है कि व्यक्ति को बहुत गौण कर दिया। इतना गौण कर दिया कि जितना नहीं करना चाहिए । यह तो होता है कि कभी-कभी उपयोगिता के लिए एक को गौण और दूसरे को मुख्य करना आवश्यक होता है। हम चाहते हैं तो एक पैर को मुख्य करते हैं और दूसरे को गौण करते हैं। एक पैर आगे बढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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