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________________ १८८ एकला चलो रे तो अनहोनी घटनाएं भी व्यस्तता के नाम पर मान्य हो जाती हैं । तर्क के रूप में प्रस्तुत हो जाती हैं। बच्चा पढ़ रहा था। बिजली चली गई। पिता आया, पूछा, 'क्यों रे, क्या कर रहा है ?' बोला, 'पढ़ रहा हूं।' "बिजली तो है ही नहीं, क्या पढ़ रहा है ?' बच्चा बोला, 'अरे ! बिजली तो है ही नहीं, कब चली गई, पता हो नहीं चला।' ____एक ऐसा आवरण मनुष्य के सामने आ गया। सारी सचाइयों को झुठलाने का एक बड़ा बहाना आ गया। जो व्यक्ति व्यस्त है, वह कभी अकेला नहीं हो सकता। जो अकेला नहीं हो सकता, वह सचाइयों को उपलब्ध नहीं हो सकता । एकांतवास एक बहुत बड़ा सूत्र है-सचाइयों को उपलब्ध होने का । एकांत का एक दूसरा अर्थ और है। एकांत में रहना यह पहला अर्थ और दूसरा अर्थ है-समूह के साथ रहते हुए भी अकेलेपन का अनुभव करना । साधना का परम सूत्र है-अकेलेपन का अनुभव । बड़े-बड़े साधकों ने इसके प्रयोग करवाये। जैन साधना पद्धति में बारह अनुप्रेक्षाएं हैं । इनमें एक अनुप्रेक्षा है---एकत्व अनुप्रेक्षा। इसका अर्थ है-निरन्तर अकेलेपन का अनुभव करना, अनुचिन्तन करना । समूह में रहते हुए अकेलेपन का अनुभव करना नहीं जानता, वह कभी दुःखों से अपने आपको नहीं बचा पाता । किसी ने कुछ कहा, मन में दुःख हो गया। कोई गाली दी, मन दुःख से भर गया । अप्रिय बात कही, मन दुःख से भर गया। मन के प्रतिकूल कोई घटना घटी, मन दुःख से भर गया। दिन में न जाने कितनी बार हमारे प्रतिकूलताएं आती हैं, अप्रियता के संवेदन आते हैं और मन भारी हो जाता है, दुःख से भर जाता है। इसलिए भरता है कि हमने सम्बन्ध को भी सचाई मान लिया है। एक मालिक का और नौकर का सम्बन्ध है, मात्र सम्बन्ध है। सम्बन्ध को हम सम्बन्ध मानते हैं तो कोई कठिनाई नहीं होती। सम्बन्ध का मतलब होता है कि दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व-वह अलग और वह अलग । मैं अकेला और वह भी अकेला । सुविधा के लिए हमने एक सम्पर्क स्थापित किया, एक सम्बन्ध स्थापित किया। एक हमारे सम्बन्ध की अनुभूति होती है, एक हमारी अभिन्नता की अनुभूति हो जाती है। जहां अभिन्नता नहीं है वहां हमारी अभिन्नता का आरोपण और जहां हमारी एकता है उसकी विस्मृति, उसका परिणाम यह होता है कि नौकर कोई बात स्वीकार नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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