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________________ १८२ एकला चलो रे केन्द्र से है । स्वाधिष्ठान चक्र जितना सक्रिय होगा, भोजन की लोलुपती उतनी ही अधिक होगी। स्वाधिष्ठान चक्र जितना सक्रिय होगा, काम की वासना उतना ही प्रबल होगी । स्वाधिष्ठान चक्र को या स्वास्थ्य केन्द्र को निष्क्रिय करना है। वह निष्क्रिय जैसे-जैसे होगा, वैसे-वैसे भोजन की लोलुपता भी मिटेगी और काम वासना भी कम होती जाएगी। देखता हूं कि जैन आगमों में स्थान-स्थान पर भोजन की लोलुपता पर बहुत प्रहार किया गया है। भोजन-संयम पर बहुत बल दिया गया है । आप स्वास्थ्य केन्द्र को निष्क्रिय करने के लिए उस पर ध्यान करें, आपकी भोजन की और वासना की दोनों की लोलुपता कम होगी। यदि आप में शक्ति है, बल है तो आप स्वास्थ्य केन्द्र पर ध्यान बिलकुल न करें। भोजन और मन में उठने वाली तरंगों का संयम करें, स्वास्थ्य केन्द्र अपने आप निष्क्रिय हो जाएगा। किसी भी रास्ते से चलें किन्तु यह रास्ता जरा कठिन है और स्वास्थ्य केन्द्र को निष्क्रिय करना, यह रास्ता जरा सरल है। सरलता और कठिनता की दृष्टि से चुनाव किया जा सकता है । दोनों प्रक्रियाएं हैं। चाहे इधर से चलें, चाहे. उधर से चलें, किन्तु लक्ष्य-बिन्दु पर जरूर पहंच जायेंगे। भोजन की लम्बी चर्चा के बाद अब नींद पर भी थोड़ी-सी चर्चा कर लें । बड़ा जटिल प्रश्न है नींद का। इसे बुलाने की जरूरत नहीं होती, बिना बुलाए ही आ जाती है । रसोई बनाते शायद नींद नहीं आती होगी, कपड़ों की सिलाई करते या गप्पें हांकते समय नींद नहीं आती होगी, सिनेमा देखते समय भी शायद नींद नहीं आती होगी, किन्तु ध्यान में बैठते ही नींद शुरू हो जाती है । जैसे ध्यान में चित्त को निर्मल बनाने का अवसर है उतना ही नींद को लेने का है। दोनों का समान अवसर है। यह नींद के लिए बहुत अच्छा अवसर है । ऐसे सोते समय भी पूरी नींद नहीं आती होगी । जिन लोगों को नींद नहीं आती है उन्हें नींद की गोलियां लेने की जरूरत नहीं। कायोत्सर्ग की स्थिति में बैठ जाए तो उनका काम हो जाएगा। अपने आप काम हो जाएगा। किन्तु कठिनाई तो तब होती है जब ध्यान में नींद सबसे पहले अपना आसन बिछा देती है । वे तो अपना आसन बिछा ही नहीं पाते, नींद पहले ही अपना आसन बिछा देती है । बड़ी कठिनाई होती है। नींद और जागरण-दोनों साथ जुड़े हुए हैं। जागना और सोना-दोनों बातें हैं । खाने के बारे में कोई नियम नहीं बनाया जाता। हर व्यक्ति की भूख अलग-अलग होती है । इसी प्रकार नींद के विषय में भी नियम नहीं बनता । बन भी कैसे सकता है ? सबके अपने-अपने नियम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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