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________________ १८० एकला चलो रे हम इस बात को न भूलें कि आहार एक अलग वस्तु है और भोजन एक अलग वस्तु है । आहार बहुत व्यापक है और भोजन आहार का एक अंश है। आहार का अर्थ है कि हम बाहर से जो कुछ भी लें वह विवेकपूर्वक लें । मुझे तो बहुत आश्चर्य होता है कई बार कि आजकल वातावरण ही कुछ अजीबसा हो गया है। आज की सभ्यता या संस्कृति भी कुछ ऐसी हो गई है कि सीधे होटल में जाते हैं। मैं खाने की चर्चा नहीं करूंगा, दूसरी बात कहना चाहता हूं। बिस्तरे की जरूरत नहीं, कपड़ों की जरूरत नहीं। मान लिया कि आज की यात्रा इतनी सुविधा सम्पन्न हो गयी कि कुछ भी पास में रखने की जरूरत नहीं। सब कुछ किराये पर मिलता है । पहनने के कपड़े भी किराये पर मिल जाएंगे। यह बात तो ठीक है कि यात्रा में तो बहुत सुविधा हो गई पर जिस बिस्तर पर कल कोई आदमी सोया था या जिस कपड़े को कोई आदमी ने ओढ़ा था, आज आप उस बिछौने पर सोते हैं, उस कपड़े को ओढ़ते हैं तो क्या कल जिस व्यक्ति ने उन कपड़ों का उपयोग किया था उसके परमाणु भी उन कपड़ों के साथ जुड़े हुए नहीं हैं ? क्या वे परमाणु आपको प्रभावित नहीं करेंगे ? महर्षि नारद जहां भी जाते, अपना आसन साथ में रखते, किसी दूसरे के आसन पर नहीं बैठते। दूसरे का कपड़ा नहीं ओढ़ते । दूसरे का कपड़ा नहीं पहनते । ये कपड़े तो बहुत खतरनाक होते हैं । इनमें बहुत सारे परमाणु भरे हुए होते हैं। एक चिकित्सा की पद्धति चलती है कि रोगी को वैद्य के पास जाने की जरूरत नहीं। वह कपड़े को देखेगा, उसी के आधार पर उसका निदान करेगा और दवा भी दे देगा। जब कपड़े में इतने परमाणु लगे हुए हैं तो यह भी क्या आहार नहीं है ? आहार में तो यह भी आ जाता है। दूसरे का कपड़ा ओढ़ना, दूसरे का कपड़ा पहनना-यह भी आहार के साथ जुड़ा हुआ प्रश्न है। साधना करने वाले व्यक्ति को इससे सावधान रहना पड़ता है--किसका कपड़ा है, किसके ओढ़ने का है और किसके बिछावने का है। जैन साहित्य में इस विषय की बहुत सूक्ष्म चर्चा उपलब्ध होती है कि परमाणुओं का किस प्रकार संक्रमण होता है और किस प्रकार प्रभाव होता है । कोई मुनि किसी स्थान पर बैठता है तो यह विधान है कि स्थान का प्रमार्जन किए बिना दूसरा न बैठे। और यदि कोई स्त्री बैठी है और साधु को वहां बैठना है तो अन्तर्मुहर्त का अन्तराल किए बिना न बैठे । आज ये बातें बहुत स्पष्ट हो गईं। आज की फोटोग्राफी ने इन तथ्यों को इतना स्पष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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