________________
.२७८
एकला चलो रे
से । किसी दुर्गन्ध के पास से आप गुजरते हैं और नाक आहार करता है । केवल मुंह ही आहार नहीं करता, हमारी घ्राणेन्द्रियां भी आहार करती हैं। दुर्गन्ध के परमाणु जाते हैं और तत्काल आपकी भृकुटि तन जातो है, दोनों मथुने सिकुड़ जाते हैं। किसी परिमल के पास से गुजरते हैं, सुवासना आती है, सुगन्ध के परमाणु चारों ओर बिखरते हैं तो दिल और दिमाग दोनों प्रसन्न हो जाते हैं । ऐसा लगता है कि प्रसन्नता से आप भर गए। तो इस प्रभाव और संक्रमण की स्थिति में रहने वाला व्यक्ति आहार के बारे में ध्यान नहीं देगा तो उसका परिणाम भुगते बिना नहीं रहेगा । निश्चित ही भुगतना पड़ेगा।
साधन का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है—आहार का विवेक ।
जो व्यक्ति बदलना चाहता है, अपनी आदतों को बदलना चाहता है, प्रभाव को बदलना चाहता है, अपने व्यवहार को बदलना चाहता है उसे आहार को भी बदलना पड़ेगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि आप ध्यान करें, साधना करें, सामायिक करें, संयम की साधना करें और जो चाहें सो खाते चले जाएं, जैसे चाहें वैसे खाते चले जाएं और जब चाहे तब खाते चले जाएं । जो पक्ष आप संचालित कर रहे हैं, वह पूरा नहीं होगा। आपकी कल्पना का सपना अधूरा का अधूरा रह जाएगा।
हम आहार को ध्यान से भिन्न न मानें । यह भी ध्यान का अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण अंग है । उसे अतिरिक्त नहीं देखा जा सकता और अलग नहीं किया जा सकता।
पहले मानसशास्त्री और मानसचिकित्सक मानते थे कि मानसिक विकृ'तियों के कारण ये सारी मानसिक बीमारियां होती हैं, मस्तिष्कीय दुर्बलता के कारण ये बीमारियां पैदा होती हैं। किन्तु अब नयी खोजों से यह पता चला है कि अपोषण और कुपोषण-ये दोनों मानसिक बीमारियों के लिए काफी 'जिम्मेदार हैं । पूरा पोषण नहीं मिलता तो स्नायविक दुर्बलता होती है, मान'सिक रोग पैदा होते हैं, कुपोषण से भी मानसिक रोग पैदा होते हैं । भोजन
का मतलब कोरा पेट भरना ही नहीं है। कोरी रोटियां ही रोटियां खा लीं, प्पेट तो भर जाएगा। पांच-दस रोटियां खा लीं, पेट तो भर जाएगा, किन्तु कुपोषण हो जाएगा, ठीक पोषण नहीं होगा। शरीर को जिन तत्त्वों के संतुलन की जरूरत है, जो तत्त्व शरीर में पूरा कार्य करते हैं, उस पूरे यन्त्र को संचालित करने के लिए कार्बोहाइड्रेट भी चाहिए, चिकनाई भी चाहिए, लवण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org