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एकला चलो रे
प्रसन्नता हो।
भोजन भावक्रिया है। हम भाकश्यिा को न भूलें । प्रेक्षाध्यान की साधना करने वाला व्यक्ति भावक्रिया को भूलेगा तो प्रेक्षाध्यान की साधना नहीं होगी। पूरा एक घंटा आप ध्यान की साधना में लगाते हैं। विधिवत् ध्यान का प्रयोग करते हैं और भावनिया का दिन में प्रयोम करते हैं तो साधना पूरी नहीं होती । जिस समय जो काम करना है वही काम करें। भोजन करना है तो केवल भोजन ही करें, और कुछ नहीं करें। जैसे आपको निर्देश मिलता है कि केवल देखें, केवल श्वास का अनुभव करें। तो चित्त विकल्प-शून्य रहे, श्वास का अनुभव करें और कुछ न करें। भोजन के समय भी वही प्रयोग होना चाहिए । मैंने कई बार सोचा था कि जब शिविराथियों का भोजन हो तो उस समय एक व्यक्ति खड़ा रहे और बार-बार सुझाव देता रहे कि केवल भोजल करें, केवल भोजन करें। ऐसा होता था पुराने जमाने में। चक्रवर्ती भरत ने एक आदमी की नियुक्ति की थी, जो प्रातःकाल उठते ही उन्हें साबधान किया करता था, जागरूकता पैदा करता था। जागरूकता बढ़ाने के लिए भी ऐसे साधनों की बहुत जरूरत है। केवल भोजन करें, केबल भोजन करना सीखें । यह केबल भोजन करना- मन में कोई क्रोध की भावना, न उत्तेजना, न चिंता, न चिड़चिड़ापन, न राग का भाव, न वेप का भाव, केवल भोजन का भाव और आगे-पीछे भी पूरी शुद्धता- अर्जन में भी शुद्धता, निर्माण में भी शुद्धता और खाने में भी शुद्धता-इसका अर्थ है ऋतभुक् ।
भोजन स्वास्थ्य देता है और भोजन स्वास्थय बिगाड़ता है। रोग भी भोजन पैदा करता है और आरोग्य भी भोजन बनाता है। उसके लिए ये तीन सूत्र महत्त्वपूर्ण हैं-मितभुक्, हितभुक् और ऋतभुक् । __ हमारा आहार और हमारे विचार परस्पर जुड़े हुए हैं। मन और आहार परस्पर जुड़े हुए हैं। इनके लिए, शरीर की शक्ति को बढ़ाने के लिए आहार और मन की शक्ति को बढ़ाने के लिए भी आहार बहुत आवश्यक है।
यह आहार का विषय हमारे लिए बहुत विमर्शनीय है । हम इस पर बहुत गहराई से चिन्तन करें, विमर्श करें, ध्यान करें, आहार-शुद्धि का पूरा उपक्रम करें।
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