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आहार और विचार
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हितकर भोजन की बात मैं ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानता हूं। हितकर भोजन और मित भोजन होने पर भी भोजन ऋत नहीं होता है तो पूरी बात नहीं बनती। ऋत भोजन का सम्बन्ध जुड़ता है हमारी सूक्ष्म भावनाओं से । ऋत भोजन का सम्बन्ध जुड़ता है हमारी मानसिक विचारधाराओं के साथ । भोजन कमाते, पैदा करते या बनाते समय किस प्रकार की विचारधारा है, सबका प्रभाव भोजन पर पड़ता है। एक व्यक्ति ने बड़ी क्रूरता के साथ भोजन का अर्जन किया । एक व्यक्ति ने बड़ी क्रूरता के साथ भोजन बनाया। अब खाने वाला बेचारा उसे अच्छे भाव से ही खा रहा है, किन्तु उस भोजन में क्रूरता के भाव आ रहे हैं तो कोमल व्यक्ति को भी वह क्रूर बना देगा। ऐसा होता है भोजन कितना गजब ढा देता है, कितना अनर्थ कर देता है ! व्यक्ति के मन में चोरी की भावना जाग जाती है। एक संन्यासी के मन में अपराध की भावना जाग गयी । ऐसा क्यों हुआ ? कारण खोजा तो पता चला कि जो भोजन मिला, सारा उसी का दोष है। जब तक वह भोजन रहा, तब तक भावना रही। जब भोजन निकला तो भावना भी साथ में समाप्त हो गयी।
क्रोध करने वाला व्यक्ति स्वयं दुःखी नहीं होता। वह अपने क्रोध के परमाणुओं को बिखेरता है तो आसपास का वातावरण भी दुःखी हो जाता है । घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध-इन सारे परमाणुओं का बड़ा प्रभाव होता है । हमारे आसपास में आभामण्डल होता है। उसमें से हमारी भावधारा के परमाणु निकलते हैं, दूर तक फैलते हैं । अच्छे परमाणु और बुरे परमाणु । अच्छी भावधारा तो अच्छे परमाणु, बुरी भावधारा तो बुरे परमाणु । दोनों प्रकार के परमाणु निकलते हैं । एक सन्त के पास जाकर बैठते हैं तो मन आनन्द से भर जाता है । बिना कारण ऐसा लगता है कि प्रसन्नता बरस रही है। किसी क्रोधी, ईर्ष्यालु व्यक्ति के पास जाकर बैठते हैं तो मन खिन्न हो जाता है। यह परमाणुओं का प्रभाव होता है। हमारा संवेदनशील मन, संवेदनशील चेतना इतनी सूक्ष्मता और इतनी दूरी से उन्हें पकड़ लेती है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
इस सारे संदर्भ में हम सोचते हैं कि 'ऋतभुक' का कितना महत्त्व है। ऋतभुक् यानी वह भोजन जिसके साथ सच्चाई जुड़ी हुई है, जिसके साथ पवित्रता और चेतना की निर्मलता जुड़ी हुई है, इसलिए भोजन बनाने वाला, भोजन पैदा करने वाला हर कोई व्यक्ति नहीं चाहिए। यह ऋतभुक का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है कि भोजन के समय हमारे चित्त की
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