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एकला चलो रे हैं । वहां से उड़े दूसरी जगह बैठे । संयोग मिला कि वाग्भट्ट जा रहा था। आयुर्वेद में चरक, सुश्रुत और वाग्भट्ट-तीन प्रमुख ग्रंथकर्ता माने जाते हैं। वाग्भट्ट मिला तो कबूतर ने फिर वही प्रश्न दोहराया । वाग्भट्ट ने देखा । वह विद्वान् था, ताड़ गया । सोचा-यह कबूतर नहीं, महर्षि चरक ही हैं । तत्काल बोल उठा--स्वस्थ वह है, नीरोग वह है जो मित भोजन करता है, हित भोजन करता है और ऋत भोजन करता है। पहली बात है कि लूंस-ठूसकर नहीं खाता । लूंस-ठूसकर खाने वाला व्यक्ति कभी साधना नहीं कर सकता। साधना तो क्या, अपने शरीर की साधना भी नहीं कर सकता। खा लेता है तो घंटा भर बाद जब प्यास लगती है तो पानी पीता है और वायु बनती है, तो फिर ऐसा होता है कि कोई दूसरा आकर उठाये तो ठीक अन्यथा हिलडुल भी नहीं सकता। बड़ी मुसीबत पैदा हो जाती है, और फिर कहता है कि पेट और आंतें सारी ठस हो गयीं। फिर चाहिए-पत्थर-हजम चूर्ण या वे गोलियां जो भोजन को पचा सकें।
दूसरी बात है-हितकर भोजन करता है। स्वाद की दृष्टि से नहीं खाता । जो अनुकूल होता है, वही खाता है। अब हित की व्याख्या बहुत लम्बी-चौड़ी है । ऋतु के अनुसार, स्वास्थ्य के अनुसार हितकर होता है और व्यक्ति विशेष के कारण भी हितकर हो सकता है । सर्दी का मौसम और खूब गरम चीजें खायी जाएं। हितकर हो सकती हैं किन्तु गर्मी के मौसम में गर्म चीज अहितकर हो जायेगी। गर्म चीज खाना, यानी जैसे चाय पीना। चाय का एक दोष यह भी है कि चाय पीने वाला ठंडी चाय नहीं पीता । इतनी गर्म पीता है कि कई लोग उस बर्तन को हाथ में नहीं पकड़ पाते, पर मुंह में डाल लेते हैं । बेचारी आंतों का क्या होगा ! आंतों, आमाशय और पक्वाशय के वाणी होती तो आंतें सबसे पहले विरोध करतीं कि तुम्हें स्वाद लगता है पर हमारी दशा को देखो कि हमारे पर क्या बीत रही है, कितनी हानि होती है । तो बहुत गर्म चीज भी खाना अच्छा नहीं, शरीर के तापमान से ठंडी चीज खाना भी ठीक नहीं । बच्चा छोटा होता है तो बर्फ खाना सीख लेता है जिससे उसका गला तथा आंतें बिगड़ जाती हैं। फिर मां-बाप सोचते हैं, बच्चा बहुत बीमार रहने लग गया, कमजोर रहने लग गया । टोंसल बहुत बढ़ गये। गला बहुत खराब हो गया। पेट बहुत खराब, दांत बहुत जल्दी गिर गए। आंत और दांत-ये दोनों ठंडी चीज से बहुत जल्दी खराब होते हैं । यह सारा अहितकर भोजन से होता है ।
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