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________________ आहार और विचार १७६ चलता है। वाणी को आहार चाहिए-चिन्तन और मनन को आहार चाहिए। फिर जब आहार अनिवार्य तो किस प्रकार का आहार लें ? एक आहार हमारे विचार को, हमारी भाषा को, हमारे मन को विकृत बनाता है। एक आहार हमारे इस तन्त्र को स्वस्थ बनाता है। जिस व्यक्ति ने आहार को समझने का प्रयत्न नहीं किया और ध्यान करता है तो ठीक वही बात होती है कि अन्धी बुढ़िया पीसती जा रही है, उधर कुत्ता खाता जा रहा है । हमारी दृष्टि सम्पन्नता और विवेक-सम्पन्नता होनी चाहिए । ___हमें मन के, इन्द्रियों के, शरीर के आहार पर विचार करना होगा और उसका एक हिस्सा होगा-हमारा भोजन । केवल भोजन पर ही सारा विचार करेंगे तो बात ठीक बैठेगी नहीं। एक आदमी भोजन का तो बहुत संयम करता है, सादा भोजन करता है पर आंख का बहुत लोलुप, स्पर्श का बड़ा लोलुप, वाणी का कोई संयम नहीं और केवल भोजन पर पूरा विचार करता है । जीभ से जुड़ा हुआ है भोजन का स्वाद और जीभ से जुड़ी हुई है हमारी वाणी। एक पहलू पर तो पूरा ध्यान रखता है-सात्विक भोजन करता है किन्तु सात्विक भोजन करने में भी कोई चीज मन के अनुकूल नहीं बनी तो गुस्से में आ जाता है, गालियां देने लगता है। तो कहां हुआ भोजन का विवेक ! सारी बातें बहुत जुड़ी हुई हैं। आहार का विवेक बहुत व्यापक अर्थ में हम स्वीकार करें तभी बात बनेगी, अन्यथा बात अधूरी रह जायेगी। ध्यान करने वाला व्यक्ति स्वाद का संयम करता है, क्योंकि चटपटी, मीठी और बहुत सारी चीजें खाने को नहीं मिलती, किन्तु इतने मात्र से आहार की समस्या हल हो जाती है और ध्यान में आपको बल मिल जाता है, यह मानेंगे तो आपको बड़ी भ्रांति पैदा ही होगी। महर्षि चरक ने सोचा कि मैंने जो कुछ कहा, उसे मेरे शिष्यों ने, अनुयायियों ने ठीक से समझा या नहीं, इसकी मुझे परीक्षा करनी चाहिए । कहा जाता है कि कबूतर का रूप बनाकर एक पेड़ पर वे बैठे । उधर से बहुत सारे वैद्य जा रहे थे। कबूतर बोल उठा, जिसका अर्थ था-स्वस्थ कौन ? रोग से मुक्त कौन ? वैद्यों ने सोचा-कौन बोल रहा है ? पक्षी बोल रहा है । बहुत ने तो उपेक्षा कर दी। उत्तर किसी समझदार को देना चाहिए, किसको उत्तर दें। कुछ लोगों ने उत्तर दिया । ठीक बैठा नहीं, समझ में नहीं आया। महर्षि ने सोचा-या तो ये समझ नहीं पा रहे हैं या मेरी उपेक्षा कर रहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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