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एकला चलो रे
जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है—आहार । आहार का अर्थ होता है— बाहर से लेना । पौद्गलिक जगत् की ऐसी व्यवस्था है कि बाहर से लेना होता है । केवल प्राणी ही नहीं, अचेतन वस्तुएं भी लेती हैं । यह हमारे सामने भींत है । ऐसा लगता है कि यह तो स्थायी चीज है । किन्तु सूक्ष्मता में जाएं तो ऐसा लगता है कि निरन्तर यह भींत अनन्त परमाणुओं को ले रही है और अनन्त परमाणुओं को छोड़ रही है ।
प्रत्येक पदार्थ का, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, यह नियम बना हुआ है कि नया लेना और पुराने का विसर्जन करना -पुराने को छोड़ते चले जाना । यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है । प्राणी आहार लेता है और लेता रहेगा। एक क्षण भी ऐसा नहीं जाता कि कोई व्यक्ति निराहार हो सके । जब से गर्भाधान हुआ, तब से आहार कर रहा है। एक प्राणी मरने के बाद दूसरे जन्म में जाता है, बीच की स्थिति को कहते हैं अन्तराल गति । उस गति में भी पूरा अनाहार नहीं होता । वहां भी कभी-कभी लंबा समय होता है तो बीच में आहार ले लेता है ।
अनाहार होना, यह शरीर के लिए संभव नहीं है । हम शरीर के प्रत्येक कण से लेते हैं । जीवन के प्रारम्भ में जो लेते हैं उसकी संज्ञा है—ओज आहार । यह हमारी जीवन शक्ति है । यह जब तक रहती है, आदमी जिन्दा रहता है, वह चुक जाती है तो आदमी मर जाता है। दूसरा रहता है रोम आहार । हर रोम से हम आहार लेते हैं । पुराने जमाने के लोग एक बार खाते थे, बाद में अनेक बार खाने लगे । परन्तु कितना अधिक बार खा सकते हैं ! किन्तु रोम आहार हम प्रतिक्षण लेते हैं । उस आहार में कठिनाई होती है तो सचमुच कठिनाई होती है, दम घुटने लग जाता है । आदमी जब बहुत ऊंचा जाता है तो ऑक्सीजन नहीं मिलती और दम घुटने लगता है । इसलिए ऊपर या नीचे जाने वाले ऑक्सीजन की व्यवस्था करके जाते हैं । तो हमें हर क्षण आहार चाहिए ।
तीसरा होता है— केवल आहार । जो हम कौर से खाते हैं वह हमारा भोजन होता है । आंख से देखते हैं-आंख का आहार । कान से सुनते हैंकान का आहार । प्रत्येक इन्द्रिय का अपना आहार होता है । मन से विकल्प करते हैं--मन का आहार है । भाषा का आहार करते हैं, फिर बोलते हैं । हमारी एक भी वाणी नहीं होती जो आहार के बिना चल सके । प्रत्येक शब्द के पहले आहार, फिर परिणमन, फिर उसका विसर्जन - यह बराबर
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