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आहार और विचार
ध्यान विकास की एक प्रक्रिया है। हम शक्ति का विकास, आनन्द का 'विकास और चेतना का विकास चाहते हैं। विकास चाहना एक बात है और प्रक्रिया में से गुजरना दूसरी बात है । जो व्यक्ति कोरा चाहता है और प्रक्रिया में से नहीं गुजरता, उसकी चाह पूरी नहीं होती। चाह को पूरा करने के लिए आवश्यक होता है--एक साधना का उपयोग ।
हमने प्रेक्षाध्यान का आलम्बन लिया है, सहारा लिया है। किन्तु हमारी दुनिया नाना तत्त्वों से बनी हुई है। हम जीते हैं नाना सम्पर्कों में, नाना सम्बन्धों में और नाना संयोगों में। एक को ही मानकर नहीं चल सकते, अनेक को भी मानना पड़ता है । कोरा एक तन्त्र ही नहीं चलता, अनेक तन्त्र भी चलता है।
ध्यान चित्त की वह निर्मल अवस्था है जहां कोरी चेतना जागृत होती है और सारी बातें छूट जाती हैं। किन्तु उस निर्मल चेतना को उपलब्ध करने के लिए अनेक रास्तों से चलना पड़ता है । उनमें एक मार्ग-आहार । पहुंचना ध्यान की गहराई में है, चेतना की उच्च भूमिका में है, पर आहार पर विचार करना बहुत अपेक्षित है। आहार को हमने स्थूल अर्थ में समझा है। आहार बहुत व्यापक है। भोजन बहुत छोटी चीज है । आहार के बिना शरीर का निर्माण नहीं होता।
जीवन के छह शक्तियां हैं१. आहर पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. श्वासोच्छवास पर्याप्ति ५. भाषा पर्याप्ति ६. मन पर्याप्ति
पहली शक्ति-आहार पर्याप्ति, फिर शरीर का निर्माण होता है, फिर इन्द्रियों का निर्माण होता है, फिर श्वासोच्छ्वास की शक्ति का निर्माण होता है, फिर भाषा की शक्ति का निर्माण होता है, फिर मन की शक्ति का निर्माण होता है।
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