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एकला चलो रे
पूरी हो और कब मैं चमार के यहां जाऊ। इसी विचार से आराधना पूरी कर अब बाहर आया हूं। मुनि बोले-सेठजी ! तुम्हारी पूत्रवधू ने सत्य ही तो कहा था। तुम्हारा शरीर आराधना-कक्ष में था, पर चित्त चमार की दूकान के चक्कर लगा रहा था। बिना चित्त के आराधना कैसी ?
प्रत्येक आदमी की आज यही दशा है । उसका चित्त किसी और दिशा में जा रहा है और शरीर किसी भिन्न दिशा में है। हमारा शरीर स्नायविक क्रिया के आधार पर काम करता है । कोई भी व्यक्ति जब पहले दिन सीढ़ियों पर चढ़ता है तब सावधानी के साथ पैर रखता है । दस-बीस बार उन सीढ़ियों पर चढ़ चुकने के बाद पैर अभ्यस्त हो जाते हैं और तब उतना ध्यान देना आवश्यक नहीं होता। पैर अपने आप काम करते रहते है, चढ़ते रहते हैं। ऊंट एक बार जिस रास्ते से गुजर जाता है, फिर मालिक सोता ही रहे, वह मार्ग पर चलता हुआ गन्तव्य तक पहुंच जाता है। इसी प्रकार हमारे शारीरिक स्नायुओं को अभ्यास हो जाता है, फिर काम के साथ चित्त को जोड़ना नहीं पड़ता। काम यंत्रवत् पूरा हो जाता है। हमें पता ही नहीं चलता। इस प्रक्रिया में शक्ति का अधिक व्यय होता है । व्यक्तित्व-विकास के लिए यह जरूरी है कि शक्ति को हम सुरक्षित रखें और उसका सही उपयोग करें। उसके लिए एक सफल सूत्र है-वर्तमान में जीना । जो व्यक्ति वर्तमान में जीने का अधिकतम अभ्यास करता है उसकी शक्तियां बढ़ जाती हैं । 'जागरमाणस्स वड्डए बुद्धी'—जो जागृत होता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है । बुद्धि बढ़ने का अर्थ है-स्मृति-शक्ति का विकास, विवेक-शक्ति का विकास । ऐसे व्यक्ति का चिंतन ज्यादा काम करता है क्योंकि उसकी शक्ति कल्पनाओं में ज्यादा खर्च नहीं होती। यह सच है कि कल्पना भी आवश्यक होती है और स्मृति भी आवश्यक होती है, किन्तु अनावश्यक कल्पना और अनावश्यक स्मृति में शक्ति का दुरुपयोग होता है। इससे बचने का एक सूत्र है-वर्तमान में जीना, जागरूकता का अभ्यास करना । भविष्य और अतीत से हटकर वर्तमान में जीने का अभ्यास करना।
जागरूकता का एक सूत्र हैतन्मय हो जाना, जो काम करे उसमय बन जाना । ध्यान करते समय ध्यानमय बन जाना । रोटी खाते समय रोटीमय बन जाना और पानी पीते समय पानीमय बन जाना।
जब आदमी चलता है, तब दो अवस्थाएं होती हैं। एक होता है चलने वाला और दूसरी होती है गति । काम करने वाला और क्रिया-ये दो अव
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