________________
जागरूकता
करना, केवल भोजन करना । पर वास्तव में कौन करता है केवल भोजन ?
एक साधक से पूछा- आप क्या साधना करते हैं ? उसने कहा- जब भूख लगती है तब खा लेता हूं और जब नींद आती है तब सो जाता हूं । यही है मेरी साधना । उसने कहा - ' बड़ी सीधी बात है । यह तो मैं भी कर सकता हूं ।' साधक से कहा-अच्छा, आओ, भोजन करें। दोनों भोजन करने बैठे । भोजन पूरा हुआ । साधक ने पूछा -- भोजन कर लिया? हां कर लिया । क्या खाया था ?
रोटी, शाक, चावल और मिठाई ।
केवल भोजन हीं किया या कुछ स्मृति और कल्पना भी की ?
भोजन करते-करते अनेक स्मृतियां सामने आ गईं। मीठी-मीठी कल्पनाएं भी कीं । भोजन यंत्रवत् चलता रहा और मैं उन स्मृतियों और कल्पनाओं में डूबता रहा । परोसी हुई थाली खाली हो गई । हाथ धोकर उठ खड़ा हुआ। भाई ! तुमने भोजन कहां किया ? भोजन कहां खाया ? तुमने तो स्मृतियां खायी हैं, कल्पनाएं खायी हैं, विचार खाया है, रोटी और मिठाई कहां खायी ?
केवल रोटी और मिठाई खाना बहुत कठिन होता है । आदमी विचार खाता है, कल्पना खाता है । आयुर्वेद का एक सूत्र है - ' तन्मना भुञ्जीत ' - भोजन करते समय इसी बात का ध्यान रहे कि मैं भोजन कर रहा हूं । यह स्वास्थ्य की दृष्टि से कही हुई बात है, किन्तु साधना की दृष्टि से यह और अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाती है । साधक जो काम करे वह उसी में तन्मय बन जाए, उस काममय बन जाए। अन्यथा शरीर एक ओर जाता है और चेतना दूसरी ओर जाती है । व्यक्तित्व खंडित हो जाता है । 'डुयल पर्सनेलिटी' खतरनाक होती है। उससे जीवन सफल नहीं होता । जहां खंडित व्यक्तित्व होता है, वहां कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता ।
मुनि ने सेठ की पुत्रवधू से पूछा – श्वसुरजी कहां हैं ? उसने कहाचमार की दुकान पर गये हैं । श्वसुर उस समय आराधना-कक्ष में आराधना कर रहा था । उसने सुना, तत्काल वह आया और बोला - महाराज ! मेरी पुत्रवधू ने असत्य कहा है । मैं आराधना कर रहा था । इसने जानते हुए भी असत्य कहा है । मुनि ने सेठ से कुछेक प्रश्न पूछे । पूछते-पूछते एक प्रश्न के उत्तर में सेठ ने कहा—-धर्म की आराधना तो चल ही रही थी, किन्तु एक बात मन में चक्कर लगा रही थी कि आराधना पूरी होते ही मैं चमार के यहां जाकर जूते खरीदूंगा । जूते फट गए हैं, अच्छा नहीं लगता । कब आराधना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org