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________________ शरीर और मन का सन्तुलन १५७ स्पन्दन-वासनाओं और भावधारा के स्पन्दन और फिर आगे चलकर चैतन्य का अनुभव । हम इतनी भूमिकाओं को पार किए बिना सीधी छलांग भरना चाहते हैं, सीढ़ियां तो हैं नहीं और सोचते हैं, इतना झंझट क्यों करें, पचास सीढ़ियां उतरनी होंगी। सीधे ही छत पर से छलांग लगा दो । बात तो छलांग लगाने की हो सकती है, किन्तु परिणाम क्या हो सकता है ? हमें सीढ़ियों से उतरना पड़ेगा । शुद्ध चैतन्य का बाद में अनुभव होगा। पर यह जो पहले बात दुहराई जाती है, आत्मा और शरीर को भिन्न मान, शुद्ध चैतन्य का अनुभव करें, यह मात्र एक शब्द-जाल-सा ही लगता है । हम आत्मा के झंझट में न जाएं । आत्मा-परमात्मा के झंझट को छोड़ दें । हम एक प्रक्रिया शुरू करें। शरीर से ही चलें, पुद्गल से ही चलें । शरीर को देखें, शरीर के भीतर होने वाली क्रियाओं को देखें, चलें, चलें, चलें, चलतेचलते जो होगा, वह अपने आप मिलेगा। उलझनों ने दो धाराएं बना दी हैं । एक नास्तिक बन गया, एक आस्तिक बन गया । न नास्तिक जानता है कि आत्मा है, न आस्तिक जानता है कि आत्मा है । आत्मा का खण्डन करने वाले नास्तिक को भी पता नहीं कि आत्मा नहीं है और आत्मा का समर्थन करने वाले आस्तिक को भी पता नहीं कि आत्मा है। बस, तर्कों के आधार पर दोनों चल रहे हैं। साधना का मार्ग तर्क का मार्ग नहीं, अनुभव का मार्ग है । जितना अनुभव हो, उतना ही पांव पसारें । हम चलते चलें, भीतर होगा वह तो मिल ही जाएगा। आपके भीतर, शरीर के भीतर आत्मा नहीं है तो एक हजार बार 'आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है' दोहराएं मिलेगी नहीं। और अगर है तो आप चलते चलें, एक न एक दिन निश्चित मिल जाएगी। यह एक प्रक्रिया है । हम प्रक्रिया में विश्वास करते हैं। यह यथार्थ है और हम यथार्थ के आधार पर चलना चाहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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