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________________ शरीर और मन का संतुलन १५५ संस्थान पर कोई दबाव नहीं पड़ता । कोई कठिनाई पैदा नहीं होती । इसलिए मनोबल को बढ़ाने का बहुत बड़ा सूत्र है- वर्तमान में रहना, अप्रमत्त रहना, जागरूक रहना और देखने का प्रयोग करना । हमारी ज्ञाता और द्रष्टा की शक्ति जागे । एक संतुलन बने । यह तो मैं नहीं कहता कि आप चौबीस घंटा जानें और देखें, संभव नहीं होता । कभी हो, पर आज संभव हो नहीं सकता । आज तो एक संतुलन स्थापित करना पड़ेगा कि दिन में आप चार घंटा सोचते हैं तो दिन में एक घंटा न सोचने का अभ्यास भी करें । दिन में अगर आप चार घंटा, आठ घंटा बोलते हैं तो दिन में एक घंटा न बोलने का भी अध्यास करें। यदि आप दिन में पांच घंटा, छह घंटा, आठ घंटां कोई काम करते हैं तो एक घंटा कायोत्सर्ग का भी अभ्यास करें । कुछ भी न करने का अभ्यास करें। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन है, यह कर्म और अकर्म का संतुलन है । केवल जागरूकता का अभ्यास अगर हमारा बढ़े या संतुलन स्थापित हो तो मुझे लगता है—न केवल व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान होगा, बहुत सारी सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं का समाधान भी होगा । आदमी जितना तनाव में होता है उतना ज्यादा अपराधी बनता है । अपराध और तनाव दोनों साथ में जुड़े हुए हैं । यदि तनाव कम होगा तो प्रवृत्तियों का चक्र निरंकुश नहीं होगा । प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन होगा तो हमारी समस्याएं, मानसिक उलझनें, अपराधी मनोवृत्तियां और भय - इन सारी समस्याओं का समाधान मिलेगा । मनोबल जो बाहरी दबावों और भीतरी दबावों से निरंतर कम होता चला जाता है, उसे बढ़ने का और विकसित होने का अवसर भी मिलेगा । हम भावक्रिया में होते हैं, तब ज्ञानतन्तुओं और कर्म तन्तुओं का संतुलन होता है । किन्तु जब नहीं होते हैं तब क्या असन्तुलन होना जरूरी है ? यह प्रश्न उभरता है । भावक्रिया के समय शरीर और मन दोनों एक ही काम में लगे होते हैं; इसलिए तनाव कम पैदा होता है, शक्ति कम खर्च होती है । और जब ऐसा नहीं होता है, शरीर एक काम में लगा होता है और मन दूसरी कल्पनाओं में लगा होता है तो न शरीर की पटुता बढ़ती है, न शरीर ठीक काम करता और न मन का ठीक काम होता है। दोनों में विभाजन होने से दोनों की शक्तियां बिखर जाती हैं और अधिक शक्ति का व्यय होता है । इसलिए जरूरी है कि दोनों में सामंजस्य हो जिससे हमारी कार्य की पटुता भी बढ़े । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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