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एकला चलो रे
तार्किका: भग्ना:'-जहां स्वभाव होता है, वहां सारे ताकिक भग्न हो जाते हैं। स्वभाव में कोई तर्क नहीं होता। किन्तु हमने स्वभाव को छिपाकर विभाव का जीवन जीना शुरू किया। वृत्तियों का जीवन जीना शुरू किया, स्वाभाविक चेतना को लुप्त कर अस्वाभाविक जीवन जीना शुरू किया तो हमारे आसपास चारों तरफ तर्क का एक जाल बिछ गया और जहां तर्क आता है, वहां साधना समाप्त हो जाती है। कितना विरोध है तर्क में और साधना में ! कोई मेल नहीं लगता । जीवन की स्वाभाविक क्रिया है संयम करना । केवल सुनना, केवल देखना, केवल संघना-यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है "जीवन की। जब कन्फ्यूशियस से पूछा गया-साधना क्या होनी चाहिए ? उन्होंने कहा-और कुछ नहीं, केवल सुनो। बस, यही साधना है। एक छोटा-सा सूत्र दिया कि केवल सुनो। बड़ा छोटा लगता है केवल सुनना। 'किन्तु साधना का सारा रहस्य इसमें भर गया। हम केवल कहां सुन पाते हैं ? किसी की बात सुनते हैं, बात पूरी नहीं सुनते । उससे पहले ही मन में तर्क होता है कि कहीं ठगने के लिए तो नहीं कह रहा है ? कहीं मुझे धोखा तो नहीं दे रहा है ? मुझे गुमराह तो नहीं कर रहा है ? कहीं मैं इसके जाल में न फंस जाऊं ! कहीं कोई मायाजाल तो इसके पीछे नहीं बिछा है ? पूरी बात तो सुनी नहीं जाती और उससे पहले दस प्रकार की कल्पनाएं हमारे मन में आ जाती हैं। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। दुनिया में ऐसा सब कुछ चलता है । इसलिए हर आदमी बात को छानकर अपने पास लेना चाहता है। केवल कोई नहीं सुनता। केवल सुनना स्वाभाविक भी नहीं लगता । बहुत लोग तो ऐसे होते हैं कि मैंने इन दिनों में देखा, एक भाई ने अपनी बात शुरू की। और वह बात पूरी नहीं करता, आधी बात कहता है, उससे पहले ही सुनने वाला उछल जाता है और ठीक वैसे उछलता है जैसे भट्ठी से चना उछलता है।
आदमी केवल नहीं सुनता । सुनने के साथ-साथ अनेक धारणाएं काम करने लग जाती हैं । अनेक मान्यताएं काम करने लग जाती हैं। वे मान्यताएं, वे धारणाएं बात को सुनने नहीं देतीं। पहले ही अपना काम शुरू कर देती हैं। एक बहुत बड़ा सूत्र है साधना का भावक्रिया, अप्रमाद, जागरूकता। यानी केवल काम करना । केवल करना, केवल जानना, केवल देखना, केवल सुनना-यह एक बहुत बड़ा सूत्र है। इसकी साधना के लिए यह सारा प्रपंच है। राग-द्वेष-मुक्त क्षण में जीना, वर्तमान में जीना बहुत
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