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________________ शरीर और मन का सन्तुलन १५१ । और वह बुरा बन मिलावट को मिटाना ध्यान का बहुत बड़ा उद्देश्य है । यह मिलावट क्यों होती है, इस पर भी हम ध्यान दें। मिलावट का कारण है दबाव | दबाव भीतर से आ रहा है । मन में कोई मिलावट नहीं है । मन बेचारा शुद्ध है । उसका काम है केवल याद कर लेना, आगे की बात सोच लेना और वर्तमान का चिन्तन कर लेना । कोई खराबी नहीं । मन कोई बुरा नहीं, मन कोई सताने वाला नहीं । किन्तु एक दबाव आता है उस पर जाता है । हमारे मन पर भी कितने दबाव पड़ते हैं । वृत्तियों का दबाव पड़ता है । कभी मन पर क्रोध का दबाव पड़ता है, कभी अहंकार का, कभी घृणा का, कभी ईर्ष्या का, कभी द्वेष का । ये इतने दबाव भीतर से आ रहे हैं कि बेचारा मन लड़खड़ा जाता है। चंचल बन जाता है । विक्षिप्त बन जाता है । पागल बन जाता है । उन्मादी बन जाता है । अपने आपको संभाल नहीं पाता । छिपाना चाहे तो भी छिपा नहीं सकता । दबावों के कारण अपनी वृत्तियों को या अपने स्वभाव को वह सुरक्षित भी नहीं रख पाता और अपनी चेष्टाओं को छिपा भी नहीं पाता । जब उन्माद, प्रमाद होता है फिर पागलपन आता है । कोई छिपा नहीं सकता । एक शराबी था । शराब का बहुत बड़ा शौकीन । शराब पी ली पर डर था पत्नी का कि पता न चल जाए । शराब में धुत होकर आया । सोचा, आज पत्नी को बिलकुल पता नहीं चलने दूंगा । पत्नी द्वार के पास खड़ी थी । वह घर में घुसा । घर में भैंस बंधी थी । वह भैंस के पास गया और पूंछ को पकड़कर बोला- पप्पू की मां ! तुम सदा तो दो चोटियां बनाती हो, आज तो तुमने एक ही चोटी बनाई है। पत्नी समझ गई कि पतिदेव पीकर थाए हैं । जब उन्माद होता है, नशा होता है, तब आदमी को कुछ भी पता नहीं चलता । हमारे मन पर भी शराब का नशा छाता है। भीतर में मदिरा का इतना प्रवाह है, इतनी मादकता है, इतना लालच, इतना स्वाद, और ये वृत्तियां जब मन पर सवार होती हैं तो हमारे सारे तर्क बदल जाते | हमारे सारे चिन्तन बदल जाते हैं । हमारी अवधारणाएं बदल जाती हैं । हमारी मान्यताएं बदल जाती हैं। फिर आदमी सचाई को नहीं देख पाता । वह तर्क के सहारे जीना शुरू करता है । मैं मानता हूं, जब जीवन तार्किक बनता है, तर्क के सहारे जीवन की यात्रा चलती है, तब वह स्वाभाविक नहीं होती । स्वभाव में कोई तर्क नहीं होता, इसलिए तर्कशास्त्रियों ने कहा था, 'स्वभावे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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