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एकला चलो रे
हृदय विश्राम न ले तो वह अपना काम नहीं कर सकता। हमारे शरीर में होने वाली प्रत्येक क्रिया, रक्त-संचार, प्रत्येक अवयव की क्रिया, हर क्रिया के साथ विश्राम जुड़ा हुआ है । जागरण के साथ नींद जुड़ी हुई है। गति के साथ स्थिति जुड़ी हुई है। अगर यह योग न हो तो कोरा कर्म नहीं चल सकता। केवल अकर्म से हमारी जीवन की यात्रा नहीं चल सकती। और केवल कर्म से हमारी मनःस्थिति नहीं चल सकती। मनश्चेतना नहीं चल सकती। दोनों का संतुलन जरूरी होता है। कर्म भी हो और अकर्म भी हो। प्रवृत्ति भी हो और निवृत्ति भी हो। बहुत लोग इस भाषा में सोचते हैं कि मनुष्य का जीवन मिला है, यह शरीर मिला है, भोग के लिए मिला है। जितना खाएं-पीएं, ऐशो-आराम करें, भोग करें, उतना ही लाभ होगा। भगवान् ने इतने पदार्थ बनाए ही किसलिए ? खाने के लिए तो बनाए हैं। भोगने के लिए बनाए हैं। अगर हम उनका उपयोग नहीं करेंगे, उपभोग नहीं करेंगे तो वे पदार्थ निकम्मे हो जाएंगे । एक बड़ा तर्क आदमी के सामने आता है उपभोग का । पदार्थों के प्रयोग का। किन्तु वे इस बात को भूल जाते हैं कि पदार्थ का उपयोग या उपभोग भी अकर्म के साथ करना होता है । कोई भी आदमी कर्म की सीमा का अतिक्रमण कर पदार्थ का उपभोग करना चाहता है तो एक दिन ही कर सकता है । शायद दूसरे दिन नहीं कर सकता । हर आदमी में विवेक होता है। खाता है तो विवेक होता है कि कितना खाऊं ? चाहे कितनी ही बढ़िया वस्तु सामने आए, वह एक सीमा तक खाएगा और फिर बाद में हाथ खींच लेगा। ऐसा तो नहीं होता कि आज मनचाहा भोजन मिल गया तो खाता ही चला जाए। दिन भर खाता चला जाए । एक दिन भर खा भी ले तो दूसरे दिन फिर खाने की स्थिति नहीं होगी।
प्रत्येक कर्म के साथ अकर्म जुड़ा हुआ है। हमारा विवेक है भावक्रिया । यानी हम कर्म करें, वास्तविक कर्म करें। द्रव्यकर्म न करें। काल्पनिक कर्म न करें। भावक्रिया का अर्थ होता है शरीर और मन का संतुलन । शरीर और मन को बांटें नहीं, तोड़ें नहीं। मन शरीर का एक हिस्सा है। हमने अपनी सुविधा के लिए तीन भागों में बांट दिया-शरीर, वाणी और मन । पर वास्तव में तीन कहां हैं ? एक ही है। एकमात्र शरीर । शरीर का एक हिस्सा है वाणी और शरीर का एक हिस्सा है मन । दोनों शरीर के हिस्से हैं। यदि शरीर में स्वरयंत्र न हो तो वाणी का कोई स्थायित्व है क्या ?
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