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________________ शरीर और मन का सन्तुलन १४७ । पर क्या कानपुर, इलाहाबाद महत्त्व रहा है ? कैसे हो कम होता है। पैरों की क्रिया होती है । पर हम चलते हैं एक दिशा में । चलना शुरू कर दिया, पैर चल रहे हैं आगे और मन मस्तिष्क दूसरी बात में उलझ गया है तो एक विभाजन हो गया । संयम टूट गया । केवल चलना नहीं रहा, चलने के साथ और जुड़ गया । हमारी एक जो प्रणाली थी, एक नाली थी, जो जल की पवित्र धारा थी, उस गंगा की पवित्र धारा में बहुत सारा गन्दा कूड़ा आकर मिल गया। पानी साफ नहीं रहा । केवल पानी नहीं रहा। गंगा के पानी का बहुत महत्त्व है आदि नगरों के पास बहने वाली गंगा का वही सकता है ? इतना दूषित पदार्थ मिलता जा रहा है कि पानी अपने आप में अपवित्र होता जा रहा है । जब तक वह धारा केवल धारा होती है, गंगोत्री के पवित्र उद्गम से निकली हुई स्वच्छ जल की धारा होती है, उसका अपना मूल्य होता है । जब उसमें गन्दगी मिल जाती है, तब वह केवल गंगा नहीं रहती । ठीक हमारी भी यही स्थिति होती है । हम चलते हैं, केवल हमारा चलना होता है । उसका एक अपना मूल्य होता है । किन्तु उस चलने के साथसाथ मन की बहुत सारी गन्दगियां उसमें जुड़ जाती हैं। केवल चलना नहीं रहता, वह कुछ और हो जाता है । गुरु ने उत्तर दिया- संयम से चलो। केवल चलो । तुम्हारा शरीर भी चले और मन भी उसके साथ-साथ चले । - शरीर तो चले और मन उसके साथ न रहे और गन्दगी उसमें मिल गई तो विभाजन हो गया, टूट गया । हमारी क्रिया, हमारा क्रम वास्तविक नहीं रहा । वह औपचारिक बन गया । हर आदमी कर्म करता है । कोई भी आदमी अकर्म नहीं होता, कर्म-शून्य नहीं हो सकता, क्रियाशून्य नहीं हो सकता। हर क्षण आदमी कोई न कोई कर्म करता है । भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति की दो धाराएं रहीं । एक है कर्म की धारा, एक है अकर्म की धारा । बहुत सारे लोग सोचते हैं कि हम कर्म करें, कर्म ही करें। क्या यह संभव है ? केवल कर्म होगा ? कोरा कर्म आदमी को निष्क्रिय बना देगा । कर्म का असंतुलन जड़ता को पैदा करता है । यह सार्वभौम नियम है कि प्रत्येक कर्म के बाद अकर्म का अनुभव करना होगा । जो व्यक्ति अकर्म का अनुभव नहीं करता, प्रवृत्ति के बाद निवृत्ति का अनुभव नहीं करता, उसकी कर्म की शक्ति भी कुंठित हो जाती है । निरन्तर धड़कने वाला हृदय क्या निरंतर धड़कता है ? हृदय की गति होती है किन्तु हर एक-दो धड़कन के बाद हृदय विश्राम करता है । यदि हमारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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