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की चरम उपलब्धि है ।
एक शिष्य ने गुरु के समक्ष छह प्रश्न रखे
भंते ! मैं कैसे चलूं ?
भंते !
मैं कैसे ठहरू ?
भंते !
मैं कैसे बैठूं ?
कहं चरे ।
कहं चिट्ठे ।
कहं आसे ।
– कहं सये ।
भंते ! मैं कैसे सोऊं ?
भंते ! मैं कैसे खाऊं ? — कहं भुंजे ।
भंते ! मैं कैसे बोलूं ? — कहं भासे ।
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ये बहुत छोटे-छोटे प्रश्न हैं । एक बच्चा इस प्रकार की बात पूछ सकता है कि मैं कैसे चलूं ? क्या कोई बड़ा आदमी पूछ सकता है कि मैं कैसे चलूं ? कोई आवश्यकता नहीं लगती ।
गुरु ने एक उत्तर दिया, सब प्रश्नों का एक समाधान दिया, केवल एक समाधान | सब रोगों की एक दवा । उन्होंने कहा- जयं । बस, दो शब्दों में उत्तर है ।
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एकला चलो रे
गुरु ने कहा— जयं चरे, जयं ट्ठेि, जय आसे, जयं सए । जयं भुंजंतो । जयं भासतो....
- संयम से चलो, संयम से खड़े रहो, संयम से बैठो, संयम से सोओ, संयम से खाओ और संयम से बोलो ।
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प्रश्न भी पहेली और उत्तर भी पहेली । दोनों पहेलियां हैं । संयम का "मतलब क्या है ? नहीं चलना तो संयम हो सकता है पर चलना संयम कैसे हो सकता है ? संयम का अर्थ होता है निरोध, रोकना । स्थिति संयम हो सकता है, चलना संयम कैसे हो सकता है ? बहुत महत्त्वपूर्ण उत्तर दिया कि संयम से चलो | इसका आशय हमें समझ लेना है । इसका तात्पर्य है केवल चलो, केवल चलो । संयम से चलना है केवल चलना । क्या हम लोग केवल चलते हैं ? कभी नहीं चलते। चलने में हमारा शरीर साथ देता है । हमारी जंघा, गांव की मांसपेशियां काम देती हैं। उनका नियंत्रण करता है मस्तिष्क | पैर चलते हैं पर नियंत्रण तो पैरों के हाथ में नहीं है । नियंत्रण है सारा मस्तिष्क के हाथ में । मस्तिष्क नियंत्रण करता है । हमारे पैर उठते हैं, किस प्रकार पैर उठाना, तेज चलना, धीमे चलना, कहां रुकना - यह सारा नियंत्रण पैरों के पास नहीं है, यह मस्तिष्क करता है । केवल चलना एक संयम है । इसी का नाम है-भावक्रिया । केवल चलने का नाम है— भावक्रिया | पैरों का
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