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________________ १४५ शरीर और मन का सन्तुलन श्रम तो करना ही पड़ता है। किसी एक प्रक्रिया में श्रम कुछ कम हो सकता है और किसी दूसरी प्रक्रिया में श्रम कुछ अधिक हो सकता है। श्रम किए बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता । भवन क्यों खड़े किए जाते हैं ? आदमी को केवल छांह ही तो चाहिए | उसकी प्राप्ति के लिए नींव की खुदाई से लेकर भवन निर्माण तक कितना श्रम करना पड़ता है | कितना समय और चिंतन लगाना पड़ता है ? आखिर तो छांह ही करनी है । सीधा काम लगता है । किन्तु जो काम साध्य की भूमिका पर पहुंचने के बाद सीधा लगता है, वही काम साधना की प्रक्रिया से गुजरते समय बहुत कठिन लगता है । प्रेक्षा एक प्रक्रिया है । साध्य को पाने की । यह है केवलज्ञान की प्रक्रिया | यह है केवलदर्शन की प्रक्रिया । यह है ज्ञाता द्रष्टा बनने की प्रक्रिया | इसके द्वारा साधक केवलज्ञानी हो सकता है, केवलदर्शनी हो सकता है, ज्ञाता-द्रष्टा हो सकता है । प्रश्न सामने आता है कि इस जमाने में कोई केवलज्ञानी या केवलदर्शनी नहीं हो सकता । यह तो पुराने जमाने की बात थी । उस समय केवलज्ञानी भी होते थे, केवलदर्शनी भी होते थे । इस स्थिति में केवलज्ञान या केवल-दर्शन का कथन क्यों ? हम परिभाषा की जटिलता में न उलझें । केवलज्ञान का सीधा-सा अर्थ है— कोरा ज्ञान, केवल जानना । उसके साथ कुछ भी नहीं जोड़ना । केवलदर्शन का सीधा सा अर्थ है— कोरा देखना, उसके साथ कुछ भी नहीं जोड़ना । ज्ञाताद्रष्टा के स्वरूप को विकसित करना । साधना की परम उपलब्धि हैज्ञाताद्रष्टा होना, साक्षीमात्र होना । जो व्यक्ति साधना नहीं करता, वह व्यक्ति ज्ञाता और द्रष्टा नहीं होता । वह घटना के साथ-साथ बह जाता है । जिस प्रकार की घटना सामने होती है, वैसा ही बन जाता है । लड़ाई की घटना होती है तो लड़ने की तैयारी कर लेता है । रुलाई की घटना होती है तो रोने की तैयारी कर लेता है । हंसने की घटना होती है तो हंसने की तैयारी कर लेता है । हर व्यक्ति घटना के साथ-साथ बहता है और घटना के प्रभाव से प्रभावित हो जाता है । ज्ञाता और द्रष्टा वह होता है जो घटना के साथ नहीं चलता, किन्तु अपनी चेतना के साथ चलता है । यह अवस्था चेतना के स्तर पर घटित होती है । हम हर घटना को, हर परिस्थिति को जानते हैं, देखते हैं, पर उससे प्रभावित नहीं होते । अप्रभावित होने की यह अवस्था साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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