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शरीर और मन का संतुलन
एक प्रश्न उभरता है, साधना का इतना प्रपंच क्यों ? कायोत्सर्ग, श्वासप्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा, चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा, लेश्याध्यान, अन्तर्यात्रा-इतना प्रपंच क्यों ? हमारा उद्देश्य तो यही है, अप्रमाद आए, जागरूकता बढ़े । इतना छोटा-सा उद्देश्य और उसकी प्राप्ति के लिए साधना का इतना बड़ा जाल ! यह कैसे उचित होगा?
प्रश्न स्वाभाविक है। इस प्रश्न का उत्तर उनसे लिया जाए जो मक्खन चाहते हैं । थोड़ा-सा मक्खन चाहिए और उसके लिए कितना बड़ा प्रपंच किया जाता है । गाय या भैंस रखी जाती है। उसे चारा-पानी दिया जाता है । दूध दूहा जाता है। उसे गरम कर जमाया जाता है। फिर बिलौना कर मक्खन निकाला जाता है । छाछ के ऊपर तैरने वाला मक्खन कितना होता है ? छाछ से घड़ा भरा रहता है और उस पर तैरने वाला मक्खन थोड़ा-सा होता है । किन्तु उस थोड़े-से मक्खन को पाने के लिए कितनी सामग्री जुटानी पड़ती है ? कितना अभ्यास करना पड़ता है ? कोई कहे, मुझे थोड़ा-सा मक्खन चाहिए, मैं इतना आयाम क्यों करू ? वह कभी मक्खन नहीं पा सकता । मक्खन पाने के लिए उसे इतना प्रपंच तो करना ही होगा।
आज तक न कभी ऐसा हुआ है और न होने वाला है कि साध्य सीधा मिल जाए। साध्य-प्राप्ति का क्षण छोटा होता है। मक्खन निकलता है तो लगता है कि एक मिनट पहले कुछ नहीं था, एक मिनट के बाद मक्खन नितर आया। कुछ भी समय नहीं लगा, परन्तु उसकी प्रक्रिया बहुत लम्बी होती है, साधना लम्बी होती है। किसी भी व्यक्ति ने साध्य प्राप्त किया है तो वह एक निश्चित क्रम से चला है और एक निश्चित प्रक्रिया से उसे पाया है ।
__ आज की वैज्ञानिक पद्धति से दूध से सीधा मक्खन निकाल लिया जाता है। पर मक्खन निकलेगा दूध से ही। ऐसा नहीं होता कि संकल्प किया और मक्खन निकल गया। वैसी कामधेनु हमारे पास नहीं कि मन चाहा और मक्खन सामने आ गया। वैसा चिन्तामणि रत्न किसी के पास नहीं है कि मन में चिन्तन किया और मक्खन से भरा बर्तन सामने प्रस्तुत हो गया। आखिर
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